Thursday, May 20, 2010

हजपुरा

......गाँव में मेरा बचपना छे साल तक बीता...पढ़ाई के लिए ,मुझे

पिता जी , लखनऊ शहर ले आये .....मैं आकेला ही आया ,माँ

गाँव में ही रह गयी ......यह दौर था सन ५१ का ......पिता जी को

स्टेशन के पास रेलवे कालोनी में घर मिल गया था ......दो कमरे थे

एक किचन था ,किचन से लगा वरांडा.....घर स्टेशन से लगा हुआ था

मैं सुबह ही पिता जी के साथ ...उनके आफिस चला जाता .....लखनऊ

स्टेशन के एक नम्बर प्लेट फ़ार्म पे कैश-आफिस था रेलवेका .....जहां

पिता जी एक कैशियर वतौर काम करते थे ....

नाम मेरा अभी तक कहीं नहीं लिखा गया था ......मैं स्टेशन पे घूमा करता

पढाई के नाम पे कुछ नहीं था ......एक नम्बर प्लेट फ़ार्म पे माल गोदाम था ......मैं

घूमते -घूमते ,जब वहाँ पहुंचता .....माल गोदाम का बाबु मुझे जानता था की मैं

मिसरा जी का लडका हूँ ......जिस भी फल का सीजन होता .....वह फल जरुर खिलाता

......जाते -जाते दो -चार फल दे देता था ...

उस समय .....पिता जी सुबह ही खाना बना देते ....मैं और पिता जी सुबह

दस बजे ही खा लेते थे .......लंच नाम की कोई चीज नहीं थी ........शाम को पिता जी मुझे

चारबाग में ही जलपान नाम का एक बंगाली रेस्टोरेंट था .....शायद अब भी है ....उसके थोड़ा

आगे एक दूध की दूकान थी पंडित जी की ......उस पे सिर्फ दूध और दही ही मिलता था ...पिता जी

मुझे जबर्दस्ती दूध पिलाते थे .....फिर घर आ कर चूल्हे ...पे खाना बनाते थे ......कुछ महीने बाद

मेरे छोटे चाचा भी .....पढने के लिए लखनऊ आ गये ......तब वह क्लाश आठ में थे ....

मेरा नाम .....छित्वापुर स्टेशन रोड पे है ....वहीं पे एक गली है ,सरकारी स्कूल है एक,

वहीं मेरा नाम पहली बार लिखाया गया .....हमारे क्वाटर के बगल से भी एक लड़का वहीं पढ़ता

था ,जिसके साथ मैं जाता था .....

मैं महीना भर गया हूंगा ......फिर उसके बाद मेरा नाम रेलवे के स्कूल में लिखा दिया


गया ....एक आश्चर्य की बात बताता हूँ ....जिस स्कूल में मैं ,पहली बार गया था ....उसी के बगल

वाले मकान में ....ससुराल मेरी है ......उस समय मेरी पत्नी शायद पैदा नहीं हुई थी .....

रेलवे के स्कूल में मैं .......कुल महीना भर गया हूंगा .......एक कुत्ते ने दौड़ाया ....और मैं

नाली में गिर गया ...हाथ -पैर में चोट लगी .......बस वही ...मेरा आखरी दिन था उस स्कूल का

........माँ गाँव से आ गयी ........सन ५२ में मेरा नाम कान्यकुब्ज वोकेशनल में लिखा दिया गया

.......और मै क्लाश १२ तक यहीं पढ़ा .....नाम लिखने के बाद से ......मेरे पिता जी कभी भी मेरे

स्कूल नहीं आये .......

वैसे मेरा नाम भी क्लाश दो में लिखा दिया गया ...पहली क्लाश मैंने पढ़ी ही नहीं

क्लास का पहला दिन मुझे आज तक याद है ....मेरी माँ मुझसे मिलने आयीं थी ...एक बड़ा सा

अमरुद ले कर ......उसकी मिठास आज भी मेरी जबान पे है ....उन टीचर की शक्ल भी मुझे

याद है ......इसी क्लाश में मेरा पहला दोस्त बना ....सुभाष भंडारी ....उसके पिता मिलेट्री में

थे ....




Wednesday, May 19, 2010

हजपुरा

....मैं उन यादों को लिख रहा हूँ .....जो मेरे बचपने की वह हैं .......जिनसे

मेरे जीवन का रूप -रंग बदला ....मेरी माँ पे ....देवी माँ का साया था .....जब उन पर आता था

तब वह क्या क्या बोलती थी ......मुझे याद नहीं है ....पर वह भय...आज तक ,

मेरे अंदर छिपा बैठा है कहीं ......जब माँ ...नार्मल होती ....तब वह बहुत थकी

होती थी ....

मेरी दादी ....मुझे बहुत प्यार करती थी .....हमारे गाँव में किसी की

मौत हो गयी थी .....मैं भी जिद्द कर के चला गया था .....पहली बार किसी मरे हुए

इंसान को देखा था ....पर वह सब मेरी समझ में कुछ नहीं आया था ......मुझ में

एक आदत थी .....घर की किसी चीज को मैं ,घर के बगल जो कुआं था ....उस में फेंक

देता था ....घर की लालटेन तक फेंक दिया था ......पर मुझे डांट नहीं पडती थी ...घर का

नौकर (हरवाह ) भोला ......कुएं में घुसता और लालटेन निकाल के लाता था .......

हमारे गाँव के घर में ....चार बैल थे ....जिनसे खेती होती थी ...दो भैंस और एक जर्सी

गाय होती थी ......सुबह चरवाहा आता ....गाय और भैंस को चराने के लिए ले जाता था

.....अक्सर मैं भी उस चरवाहे के साथ जाता था ....वह मुझे किसी एक भैस पे बिठा देता

और गाँव के बाहर तक जाता ....आज जब उन घटनाओं को याद करता हूँ .....तो मुझे कान्हा

का लड़कपन याद आता है .....

बरसात के दिनों में ...गाँव के आस -पास छोटे - छोटे तलाब जो होते थे

पानी से भर जाया करते थे ......मैं अपने दोस्तों के साथ .....इन तलाबो में जाता और

तैरना सीखता था .....पानी के ऊपर एक कीड़ा बहुत तेजी से तैरता था ....जिन्हें हम सभी

भंवरा कहते थे .....दोस्त कहते थे ,इन्हें पकड के पानी के साथ पी जाएँ तो ....तैरना जल्दी

सीख जायेंगें .......यह सच है या गलत ....पर धीरे -धीरे मैं तैरना सीख गया ....

बरसात के दिनों में ....हम सभी लडके कुस्ती लड़ने का अभ्यास करते थे ....दुसरे

गाँव का एक नट आता जो हम लडकों को कुस्ती के दावं सिखाता था ......उसको दो वक्त का

खाना मिलता .....और दो महीने के बाद जब जाता .....तब उसे हर घर से अनाज मिलता ...

जिसे वह ,अपने घर ले के जाता था ......मैं बचपने में बहुत तगड़ा था ......अपने दोस्तों को

कुस्ती में हरा देता था ......इसी वजह से मेरे काफी दोस्त बन गये थे ........जो आज तक हैं

आज भी जब गाँव जाता .....सभी मिलते और उस बचपने को याद कर के खूब मजा लेते ...

भागु मेरा सबसे प्रिय दोस्त था .....आज भी वह मेरा दोस्त है .......उसके बाद ,

हिरदय मणि मेरे दोस्त थे ......गाँव में आज उनका एक कालेज है ...जिसके वह प्रिंसपल हैं


फिर राधे का नाम आता है ......हम दोनों बचपन में करेमुं नाम का एक पौधा ...जिसे शहरों

में नारी का साग कहते हैं ...तोड़ने किराहिया नाम का एक तलाब था ,जिसमें जाते थे .....

हम दोनों अपने कपडे उतार के ....तलाब के किनारे रख देते थे ,फिर उस तलाब में उतरते ...

नहाते हुए ....करेमुं का साग तोड़ते ......

आज राधे श्याम मुम्बई शहर में टैक्सी चलाते हैं .......हम लोगों का एक और दोस्त है ,जो

गाँव के कहांर का लडका है ....नाम सुरेस है ......बचपने में हम लोगों को जब दुसरे गाँव से पूड़ी की

दावत मिलती ....यह दावते अक्सर हम पंडितों को मिलती थी .....और रात को यह दावत

होती थी .....हम दोस्त सुरेस को अपने साथ ले लेते थे ....जो जात का पंडित नहीं है ....हम जब

पांत में बैठते ....उसे भी अपने बगल बिठा लेते .....उसके गले में एक जनेऊ डाल देते ,जिससे कोई

उसे ना पहचान नहीं सके ......दोस्तों में यह मेरी जिद्द का नतीजा होता ....सुरेश भी १४ से १५ साल

की उम्र में मुम्बई आ गया था ......एक पान की दूकान पे काम करता था ...कमाठीपुरा में .....२३ या

२४ उम्र में कहीं गायब हो गया .....दस से पंद्रह साल बीत गया ......पत्नी अपने दो बच्चों को ले कर

अपने गाँव चली गयी ...

फिर कई सालों बाद वह अपने गाँव आ गया .......जो उसने बताया वह कमाल का था

उसे मुम्बई में कोई साहब मिले .....जो इसको जर्मनी ले कर गया .....और इतने सालों तक वहीं ही

रहा ...जब मैंने उससे पूछा ....चिट्ठी क्यों नहीं लिखा घर में ......जो उसने बताया .....वह बहुत

अजीब है .....यह उनकी कैद में था ....घर से बाहर तक नहीं निकल सकता था ...

यह कहाँ तक सच है .....मुझे नहीं मालूम ......कुछ साल घर रहा .....फिर मुम्बई आया

और फिर से गायब हो गया .......इसकी पत्नी बच्चे अकेले हो गये ,फिर से ....इसके बेटे को .....

मेरे भाई लखनऊ ले आये ......और हमारे घर पे रहने लगा ....आज वह, यम .बी .एय .कर रहा है

पिता का पता नहीं ,फिर से इस मुम्बई में खो गया ...वह.........!
...

कुछ लोग कहते हैं , वह मछुहारों के मोहल्ले में रहता है .....एक शादी कर ली है ...क्या सच है ...

नहीं मालूम .....

Monday, May 17, 2010

हजपुरा

हजपुरा ..........मेरे गाँव का नाम है .....उत्तर प्रदेश में ...अयोध्या नाम का एक शहर है

उससे चालीस मील पूरब में जिला आंबेडकर नगर है .....कचहरी से जलाल पुर की तरफ

एक सडक जाती है .......उसी सडक पे करीब सोलह मील पे सडक के किनारे ...हजपुरा गाँव

है ......यहीं मैं सन १९४५ में पैदा हुआ था .....जुलाई का महीना था ......उस शाम खूब बारिश

हुई थी ....तारीख थी १७ ...और मैं इस संसार में आया था ॥

मेरा भरा पूरा परिवार था कई दादी थी कई बुआ थीं ....कई बाबा थे दो चाचा थे जो मुझसे

सिर्फ दस बर्ष बड़े थे ,,,,,मेरे दादा जी पैसे वाले थे ......घर का पहला नाती आया था .....खूब ढोल -ताशे बजे

घर में सभी पढ़े - लिखे थे ....दोनों चाचा होस्टल में रह के पढ़ते थे ......मेरे पिता लखनऊ में रेलवे में नौकरी

करते थे .....मेरे दादा भी रेलवे में स्टेशन मास्टर थे .......

मेरे दादा जी के दादा जी ने दो शादियाँ की थी .....पहली शादी से मेरे बाबा जी के पिता थे

सरजू प्रसाद मिश्र थे ......दूसरी शादी से उनकों चार बेटे हुए .....और मैंने बचपने में उनकी पत्नी को देखा था

हम लोग उन्हें बैहरो दद्दी कहते थे .....उनका रंग सावंला था ....काफी बूढी थी ......लेकिन उनके चारो

बेटो को एक -एक बेटी हुई .....लेकिन बेटा नहीं हुआ ........

जब मैं छोटा था .....पूरा परिवार मुझे बहुत प्यार करते थे, दो घर थे .....मैं कभी इस दादी

के साथ खेलता था .....घर के बाहर इतनी चारपाई लगती थी .....जैसा आधा गाँव सो रहा हो .....कभी इस

घर में खाना खाता था ....कभी अपने घर में .......मैं दिप्पन दादी को बहुत प्यार करता था ....वह बहुत सुंदर

थी ....गोरा रंग था उनकों एक बेटी थी उनकी शादी हो गई थी .....एक दूसरी दादी थी उनकों लूटना दादी

कहता था ....उनकों भी एक बेटी थी ....जो मुझसे तीन साल बड़ी थी ...मैं उनके साथ और अपनी बड़ी बहन

के साथ खेलता था ....हमारी एक आम की बाग़ थी ......खूब आम लगते थे उसमें ...

आज जब भी अपना बचपना याद करता हूँ .....एक कहानी की तरह सब कुछ लगता है .......मैंने चलना

कब सीखा मुझे याद नहीं .......माँ मेरी पढ़ी -लिखी नहीं थी ......मैं उनका पहला बेटा था ......मेरी मालिस

करने के लिए .....कौली को रखा था ....जितनी बार कौली मालिश करती ....वह माँ को आ के बताती ...माँ

दीवार पे कोयेले से दीवार पे एक लाईन खींच देती थीं ....और शाम को गिनवाती थी .....

करीब ....दो साल का जब हुआ .....तब मुझे चेचक निकली ....मेरा एक और छोटा भाई हुआ था ...जिसकी

मौत इसी चेचक में हो गयी .....करीब तीन साल का जब हुआ .....हमारे घर में चोरी हुई ......पहली याद

मुझे इसी बात की है ......हमारे घर के आँगन में घुसने के लिए ....तीन दीवालों को छेद करना पड़ता ....गाँव की

भाषा में सेंध लगाना कहते हैं ....इसको

पुलिस आई .......और कुछ नहीं याद है

अपनी बहन के साथ ....गाँव के स्कूल में जाता था ......

दादी मुझे अपनी गोद में ले लेती थी और भैंस का दूध निकालते समय मेरा मुहं ....भैंस के थन से निकलता

हुआ दूध मेरे मुहं की तरफ कर देती थी .......मुंह में गुदगुदी लगती थी ...........