Wednesday, June 16, 2010

हजपुरा

....मैं लखनऊ ,छोड़ के पूना आ गया ....फिल्म क़ा ज्ञान लेने

रैगिंग के डर से ....दो चार दिन अपने एक पहचान वाले घर ही रहा

पर बकरा कब तक जान बचाएगा .....एक दिन किरण कुमार और

रजा मुराद के हत्थे चढ़ गया .....बड़ी -गाली गलौज से बात की ॥

वैसे मैं भी थोड़ा सा बदमाश जरुर था ....लेकिन दोनों ही बडे लम्बे से

थे ......मैं भी डर सा गया .....मुझे पकड़ के स्वीमिंग पूल की तरफ ले गये

मुझे बहुत धमकाया .....और कहा .....हम दोनों को रोज जब भी मिलो

झुक के आदाब किया करो .....मैं उनकी हर बात में हाँ ही हाँ कह रहा था

कैसे भी कर के जान बची .......हॉस्टल में मुझे जगह मिल गयी

रूम नंबर नौ था ....और मेरा रूम पार्टनर गोस्वामी था .....पहले छे महीने में

फिल्म में कौन ..कौन से ख़ास सेक्शन होते हैं ,जो एक फिल्म को पुरी शक्ल

देतेहैं .....मैंने एडिटिंग के बारे में जाना ,साउंड रेकॉर्डिंग क्या होती है ,म्यूजिक

क्या रोल अदा करती है फिल्म के बनने में .......कैमरे के बारे में जान कारी हासिल की

.........निर्देशन क्या है ......?और फिल्म की स्क्रिप्ट क्या होती है ....?

इसी के साथ -साथ हम सभी लोग अलग अलग देशों के महान निर्देशकों की फ़िल्में भी

देखते .......समय को जैसे पंख लग गये हो ....उस तरह उड़ने लगा ..यहाँ का सुख शब्दों में नहीं कहा जा
सकता ..........दुनिया भर की फ़िल्में देखना ....उसको पढना ............उसको जानना ......

जिसको जान कर बड़ा आनन्द आ रहा था .....और एक बात हमेशा याद रहती

....अगर मैं यहाँ नहीं आता तो ........जीवन ...मिल कर भी ना मिलने जैसा होता

......यहीं पर कुछ नये दोस्त मिले ....के सी ,सतीश शर्मा ,आनन्द कर्णवाल ,आशोक घई

सुभाष डे ,यह सारे दोस्त ,आज तक हैं

एक साल की पढाई पूरी की .....कुल तीन साल का कोर्स था .....लखनऊ पहुंचा

मेरे बाबुजी बहुत खुश थे .....इस पढाई से .....भविष्य क्या होगा ,नहीं मालूम था ।

कहानी कार रामलाल जी से मिला .....वह भी बहुत खुश थे .....उन्होंने मुझे

कुछ अपनी कहानी की किताबे दी .....और मुझसे कहा ......गुलज़ार (साहब )को

दे देना ....मैं भी पहली बार गुलज़ार (साहब )क़ा नाम सुन रहा था ....फिर खुद ही राम लाल

जी ने बताया ....यह भी लेखक हैं उर्दू में लिखते हैं ....वैसे राम लाल जी भी उर्दू और हिंदी

दोनों में लिखते थे .....कहने लगे फिल्मों में गीत लिखते हैं यह सन ७० था ।

मैंने वह दोनों उनकी किताबे ली .....और उनसे वादा किया ...उन तक पहुंचा दूंगा

जून क़ा महीना था ......मैं अपने पुराने दोस्त रतन के घर आया ....वह प्रभा देवी में रहता था

अब मैं पूना जाने से पहले मुम्बई आ गया था...गुलज़ार साहब को वह किताबें जो देनी थी

उस समय बम्बई में बारिश हो रही थी .....गुलज़ार साहब क़ा पता नहीं मिल रहा था

मैं राजश्री के आफिस पहुंचा ....उनको भी गुलज़ार साहब क़ा पता नहीं मालूम था ....एक दिन रह के मुझे

पूना जाना था ......फिर उन्हीं के आफिस से जब निकल रहा था .....तभी एक आदमी ने मुझसे कहा

पाली हिल पे कोजी होम में रहते हैं ....


दुसरे दिन सुबह -सुबह पाली पहुंचा .....कोजी होम को खोजा ......चार बिल्डिंगे थी कोजी होम के

नाम से ....किस्में गुलज़ार साहब रहते हैं .....हलकी -हलकी बारिश हो रही थी ....छाता -वाता

रखने की आदत थी नहीं .....किताबे एक लिफ़ाफ़े में डाल रखी थी .....एक अजनबी शहर में कोजी होम

के कम्पाउंड में खडा भीग रहा था ......मेरे पास से एक आदमी गुजरा ,मैंने उससे पूछा गुलज़ार साहब से

मिलना था ....उसने कहा ऐ ब्लाक में चले जाओ ....निचे चौकीदार से पूछ लेना वह बता देगा .....

सच कहता हूँ ....पहली बार मैं लिफ्ट में चढ़ रहा था .....फ़्लैट नम्बर ९१ था नवा महला

यह भाषा बम्बई की है .....अब आप हजपुरा की जगह ९१ कोजी होम के नाम से पढ़ेगें .......

Sunday, June 13, 2010

हजपुरा

.....पहली बार ,मैं अपने शहर से ,कहीं दूर की यात्रा कर रहा था

ट्रेन में दो लडके और मिले जो .....पूना में इंटरव्यू देने जा रहे थे

.....पूना पहुँचने के बाद ......मैं अपने एक पहचान वाले घर जा


पहुंचा ।

दुसरे दिन प्रभात स्टूडियो में इंटरव्यू था ......प्रभात रोड


पे था यह स्टूडियो .......सुबह नौ बजे मैं पहुँच गया .......एक छोटा सा


आम क़ा पेड़ था ,जिसे विजडम ट्री कहते थे ......बाएँ तरफ एक कैंटीन थी


और इस पेड़ ही के बगल प्रिंसिपल जगत मुरारी क़ा आफिस था ......इसी आफिस

में हमारा इंटरव्यू भी था ...........मेरा नम्बर दोपहर के बाद आया ....जब मैं

आफिस में पहुंचा ...कुल पांच लोग बैठे थे .....जगत मुरारी जी ,ख्वाजा अहमद अब्बास

राजेन्द्र सिंह वेदी साहब दो और कोई थे ......जिन्हें मैं नहीं जानता ......मुझे बैठने को

कहा गया .....सभी लोगो ने फ़ार्म को पढ़ा ......पहला सवाल मुझ पर आया ......किसने

पूछा मुझे याद नहीं है ....यम .कॉम करने के बाद .....आर्ट लाइन में क्यों आना चाहते हैं

......कुछ सोचा नहीं और सीधा जवाब दिया .....आज तक कुछ सोचा ,,बस फिल्म,

इसके अलावा कुछ नहीं ......इतना सुनते ही ....अब्बास साहब ने पूछ लिया .....अभी हाल

में कौन सी फिल्म देखी है आप ने ?........सच कहूँ एक दस रोज पहले ही ....मैंने सात हिन्दुस्तानी

फिल्म देखी थी उसी कानाम लिया ......यह सुन कर अब्बास साहब ने कहा ......इसके अलावा

और कौन सी फिल्म देखी है ?.......कुछ समझ में नहीं आ रहा था ,कौन सी फिल्म के बारे में

बताऊं .....मैंने ...एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी .......नाम था ,ब्लो अप ......फिर अब्बास

साहब ने कहा इस फिल्म में क्या अच्छा लगा .....मैंने शार्ट में कहानी बता दिया .......

फिर जगत मुरारी जी ने जो पूछा मुझे याद नहीं है अब , फिर अब्बास साहब ने पूछा

....आप लखनऊ के हैं .....आप के शहर में कौन है ,जो अंग्रेजी प्ले करता है ?....मैंने ...

राज विसारिया जी क़ा नाम लिया ......

और मेरा .....इंटरव्यू पूरा हो गया ......मुझे जाने को कहा गया ....कल सुबह एक

लिस्ट निकले गी ......जिसमें स्क्रिप्ट रायटिंग कोर्स में चुने हुए लडकों क़ा नाम निकलेगा ॥

......सुबह क़ा इन्तजार होने लगा ॥

.......सुबह हुई .....मैं प्रभात स्टूडियो पहुंचा .......भीड़ थी ....लिस्ट निकली ......मेरा नाम था

उसमें .....ख़ुशी से भर गया ......

अब मुश्किल इस बात की थी .....बाबू जी आने देंगे या नहीं ......और अपने शहर की तरफ

चल दिया .....पिताजी को यह सब कुछ अच्छा लगा ....जाने की बात जब उठी .....

फिर पंडित जी को बुलाया गया ...मेरी कुंडली दिखाई गयी ....पंडित जी ने कहा ....अभी तो

इसको पढना ही है ....

...............और मैं पूना फिल्म की पढाई करने चल दिया .........

Friday, June 4, 2010

हज़पुरा

......लखनऊ में मैं ....अकेला हो गया .....मन नहीं लगता था ...बी कॉम की पढाई

शुरू की ......रतन के ख़त में कहीं ,यह जरुर लिखा होता था .....मुम्बई बहुत आगे

हर मामले में है ....रतन को गेज्बो रेस्टोरेंट में काम मिल गया .....

कुछ महीनों बाद ....रतन वापस आ गया .....रतन को मिलेट्री में कलर्क

की नौकरी मिल गयी .....फिर से हम तीनो दोस्त मिल गये .....यह वह दौर था ...फिल्मों

में कैसे प्रवेश किया जाय .....मैंने कहा हमें कुछ सीखना चाहिए ....क्या सीखा जाय ॥

रतन कहता था ...वहीं जा कर ही कुछ सीखा जा सकता है ....

मैं घर का बड़ा लडका था ....मैं भाग कर नहीं जा सकता था ........इसी दौर में

मुझे पता चला .....पूना में फिल्म की पढाई के लिए एक कालेज है .....लेकिन बी कॉम पास

होना जरूरी है .....इसी दौर मेरी पहचान राम लाल जी से हुई ....जो जाने माने लेखक थे

कहानी पढने का शौक तो बचपन से ही था .......पर कहानी लिखना ....राम लाल जी से मिलने

के बाद शुरू किया ......तभी ही रंजीत कपूर से मुलाक़ात हुई .....हमारी ही उम्र के थे ......तब तक

उन्होंने भी कुछ नहीं लिखा था .......मेरा उठना -बैठना उन लोगो से शुरू हो गया ...जो नाटक खेलते

थे .......इनमे से कोई पढाई नहीं कर रहा था ....या तो नौकरी कर रहे थे ....या खाली थी .....उस

समय लडके बारह क्लाश पास कर के ....किसी न किसी काम धंदे में लग जाते थे ...

मैंने बी कॉम पास कर लिया था ....पिता जी नौकरी की बात करने लगे थे माँ शादी के

लिए लडकियाँ ,देखने लगी ......इसी बीच मैंने पूना से एडमीशन के लिए फार्म मंगवा लिया

पूना में प्रवेश से पहले ....एक रिटेन एक्जाम होता था ......मैंने दिल्ली जा कर दिया भी ....

यह सब मैंने छिपा कर किया था .....बी कॉम तो पास हो गया .....लेकिन पूना से कोई बुलावा

नहीं आया ......मैंने यम .कॉम में एडमीशन ले लिया .....माँ शादी पे बहुत जोर दे रही थी ,पिता

जी ....नौकरी खोजने पे दबाव डाल रहे थे ......

रतन ने अपनी नौकरी का ट्रांसफर मुम्बई में ले लिया था .......सरदार दोस्त की शादी

हो गयी ......मैं अपनी पढाई करने लगा ...कहानियाँ लिखने लगा ......राम लाल जी से मिलता रहता

और उन्हें अपनी लिखी हुई चीजे सुनाता .......कहीं छपाने की हिम्मत न कर पाता इसी बीच

राज विसारिया के बारे में सुना जो अंग्रेजी प्ले करते थे ......

मैंने यह अब सोच लिया पहले पढाई पूरी करता हूँ .....फिर सोचूंगा क्या करना है

और क्या नहीं करना है ....रतन ने जो ख़त लिखा ....वह फ़िरोज़ खान के पास सहायक हो गया

मैं एक्टर फिरोज खान की बात कर रहा हूँ .......अब उसके हर ख़त में .....भर पूरफिल्मी कहानी

होती ....मैं पढाई को अधूरा नहीं छोड़ना नहीं चाहता था .......यम .कॉम .का फायनल य्ग्जाम

दिया ....और पूना का भी लीखित एग्जाम दिया ......और शुरू हो गयी ....रिजल्ट की ....एक

व्योपार भी सोचा .....प्रिंटिंग सुरु बी ........मशीन और जगह भी देख लिया ....कुल धन

लग रहा था .....करीब चालीस हजार ......

.....पूना से बुलावा आ गया ....इंटर व्यू के लिए ....अब जा कर पिता जी को

खुल कर सब कुछ बता दिया ......पिता जी ने जाने दिया ....यह पढाई भी उनकी समझ

में आ गया .....तीन साल का डिप्लोमा कोर्स था .......इस कोर्स के बाद दूरदर्शन में भी

काम मिल सकता था ....हमारे देश में ....दूरदर्शन ..............


Wednesday, June 2, 2010

हज़पुरा

..... हाई स्कूल के बाद ......मैंने कामर्स ले कर ....आगे की पढाई शुरू की

नये दोस्त मिले ....रतन मेरा दोस्त भी पास हो गया था हम एक ही सेक्सन

में थे .....हाई स्कूल पास हो जान के बाद .....अपने आप को हीरो समझने लगा

.....एक कापी ले कर स्कूल जाना .....क्लास में ,मैं और रतन साथ -साथ बैठते

....उसके पिता सरकारी ड्राईवर थे .....मिनिस्टर की सरकारी कार चलाते थे

रतन के सात भाई थे ...रतन पांचवे नम्बर पे था .....बड़े भाई ....पहलवान किस्म

के थे .....जिनसे पूरा मोहल्ला डरता था ......रतन की दोस्ती ने मुझे भी ...दादा बना दिया

.....हम टीचर से नहीं डरते थे ....बल्कि टीचर हम से डरते थे ......

फिल्मों का देखना कम नहीं हुआ .....हम को कुछ ऐसे दोस्त मिल गये जो हमें

फ़िल्में दिखा देते थे .....कालेज के स्टुडेंट यूनियन का इलेक्शन भी हम लड़वाते थे ...

और हमारा साथी ही जीता था .....

पढाई कम हो गयी ....बाबूजी को यह सब पता चल गया ....और खूब डांट पड़ी

तभी हमें एक और दोस्त मिला .....गुरचरण सिंह ....सरदार था .......वह पढाई में अच्छा था

..जो हमें हेल्प किया करता था .....पर हम तीनों ही फिल्मों के शौकीन थे ....अब हम लोग

यह सोचने लगे कैसे मुम्बई पहुंचा जाय ....

हम तीनों ....बारह क्लास पास कर चुके थे ......रतन ने मुम्बई का रास्ता पकड़ा

उसको फिल्मों में काम करना है ....उसके बड़े भाई जगन मुम्बई ही थे ....वह वहीं नौकरी

करते थे .....सरदार गुरचरण ने पी .डव्लू .डी.में नौकरी कर ली ....

मैं अकेला हो गया.........




Tuesday, June 1, 2010

हज़पुरा

......मुझमें फिल्मों में जाने की नींव .....सन सत्तावन (५७)में ही

पड़ गयी ,जब मैं सातवीं क्लास में पढ़ रहा था ....और साथ मिला

दोस्त रतन का .........फिल्म देखने की आदत पड़ चुकी थी .....घर

के बगल ,रेलवे स्टेशन के ही करीब ......सुदर्शन टाकीज था ...अब भी

है ......जिसमें चालीस नये पैसे में सबसे आगे का टिकट मिल जाता था

परदे के बिल्कुल करीब बैठ के फिल्म देखते थे ......

........चोरी चोरी ,तुमसा नहीं देखा ,.......नदिया के पार ,....

दुर्गेश नंदनी .....बहुत सारी फ़िल्में यहीं ....देखा .....यह सारा काम ,घर

वालों से छुपा कर करता था ...घर से तीन -चार घंटे के लिए गायब होना

मुश्किल होता था .....और पकडे जान के बाद डांट खाना पड़ता था ......

राजू नाम का एक लडका था .....मुझ से उम्र में बड़ा था .......डांट खाने से

बचने का एक रास्ता सुझाया उसने ........फिल्म कैसे देखी जाय ?....उसने कहा

हम में से एक ....फिल्म का टिकट ले कर के आये .....और इंटरवल तक फिल्म

देखे ......और इंटरवल के बाद की फिल्म राजू देखे .....बाद में मिल कर कहानी

एक दुसरे को सूना लें ......घर पे भी पकडे नहीं जायेगें और पैसे भी कम लगे गा

आधे पैसे में फिल्म देख लेगें ..........

और हम दोनों मिल कर फ़िल्में देखने लगे ........राजू के मौसा जी मुम्बई में फिल्म

निर्माता और निर्देशक थे ........जिनका नाम राजेन्द्र भाटिया था ......जिन्होंने अनपढ़

फिल्म बनाई थी ....और भी फ़िल्में बनाई थी ...

जब मैं मुम्बई आया ......एक दिन,राजेन्द्र भाटिया जी के बेटे से मुलाक़ात हुई

जो राज .यन .सिप्पी का सहायक था ........

मैं जब गाँव जाता .....अपनी दादी से कहता, मैं फिल्मों में जाउंगा और ढेर

सारा पैसा कमाऊँगा ........मेरे साथ जो लडके थे सारे के सारे हाई स्कूल में फेल हो गये थे

बाबूजी ने कह दिया था ....यह सब खेल -कूद बंद करो ....वरना कोई नौकरी नहीं मिलने वाली

.......सच में मेरा खेलना कूदना बंद हो गया .......हाई स्कूल सेकण्ड डीविजन में पास हो गया

बाबू जी इतना खुश .....उनकी खुशी देखते बनती थी .....

रेलवे के कर्मचारिओं के बेटों के लिए एक कैम्प जा रहा था कश्मीर .......

सिर्फ पंद्रह रूपये में .......मैं कश्मीर गया सन ६२ में .....वहीं मैंने पहली बार एक्टर ओमप्रकाश जी

से मिला ...जब हम लडके लोग निशात बाग़ में घूम रहे थे .......हमारे साथ ....लाला अमरनाथ जी

आये थे दिल्ली से .....मैं तब -तक लाला जी बारे में कुछ नहीं जानता था .....उनकी ही पहचान थी

ओमप्रकाश जी से .......उन्हीं ने हम लडको को मिलवाया था ........जब मैं मुम्बई आया तो

ओमप्रकाश जी का आफिस रूप तारा स्टूडियो में .था , मेरे निर्माता विकाश जी का भी आफिस था

वहीं और उन्होंने ही मिलवाया था .......ओमजी .....से जब मिला ....और उन्हें कश्मीर की बात की

पर .....उन्हें याद नहीं थी .....





हजपुरा

सन ५२ था ,और मैं दूसरी क्लास में था ,घर से बहुत नजदीक था स्कूल

पैदल ही मैं जाता था ...मेरे साथ ...रिफूजी बैरेक में रहने वाले वह

लडके भी थे .....जो बंटवारे के बाद ,यहाँ रहने के लिए उन्हें

घर मिला था ....मेरा साथ पंजाबी लडकों के साथ बीतता .....

हर परिवार के पास एक कहानी थी ....कैसे अपना सब कुछ छोड़ के

हिदुस्तान आये ....तीसरी क्लाश में पहुँचते ...मेरे सारे दोस्त पंजाबी

लडके हो गये ....सभी पंजाबी बोलते, सभी खूब बदमासी करते ...यह सारे

गुण मुझ में भी आ गये .....खेलते बहुत थे ,घर के बगल टीन ग्राउंड था ...

जहाँ पर सारे खेल, खेले जाते थे ....मैं भी सारे खेल खेलता .....देख -देख कर

हम लडके भी सीख जाते ,और उनकी नक़ल कर के हम बड़े होने लगे
स्कूल की की जब भी ...छुट्टी होती ...मैं अपने गाँव चल देता

जहाँ मेरे दोस्त मेरा इन्तजार करते ....गरमी की छुट्टी होती, तो दो महीने

गाँव रहता ....दिन भर आम की बाग़ में घूमना .....लडकों के साथ लखनी

खेलना ....शाम होते ही ....दादी से डांट खाना ...कपडे गंदे हो जाते ....घर में

हैण्ड पाईप से नहाना .....और पानी इतना ठंडा होता ,की एक बाल्टी से ज्यादा नहा

ही नहीं पाते .....शहर में बिजली थी ....यहाँ लालटेन .....मैं शाम को तीनों लालटेन

को साफ़ करना ...उसमें मिटटी का तेल भरना ....और सब को जला देना ,मेरी इस

आदत से दादी बहुत खुश होती .....

कच्चे आम खा कर दांत इतने खट्टे हो जाते की खाना ठीक से खाया नहीं जाता

दादी इस बात से बहुत गुस्सा करती ....दो महीना बीते -बीते पता नहीं चलता ...और मुझे

पढने के लिए लखनऊ जाना पड़ता .......

फिर से पढाई शुरू ....जो सब ,अच्छा नहीं लगता .....मुझे .....मेरा मन खेती

करने में जादा लगता था....मैं पढाई से जी चुराता था ....पिता जी डांट खाना .....मैं पिता जी

और दो चाचा लोगों में ऐसा फंस गया की मुझे पढना ही पड़ता था .....इन सब से एक

फायदा हुआ ....मेरी पढाई भी अच्छी हो गयी ....और खेलने में भी अव्वल हो गया

क्लास सात में जब पहुंचा .....पहली बार मेरे स्कूल ने लखनऊ रीजन में जूनियर रेस

में मुझे भी अपने स्कूल की तरफ से भेजा गया .....मैंने आठ सौ गज की दौड़ में भाग लिया

और मै सेकण्ड आया ....इसके बाद पन्द्रह सौ गज की रेश हुई ......उसमें भी मै सेकण्ड आया

मेरे टीचर ने मुझे अपने कंधे पे उठा लिया .......और दुसरे दिन मेरा नाम लखनऊ से

निकलने वाले पेपर स्वतंत्र भारत में नाम निकला .....जिसे देख कर मेरे पिता पहली बार बहुत खुश

हुए ........आज जब मैं अपने बचपन की बाते बताता हूँ .....तो बताते समय, मैं कहता हूँ जब

मैं सातवीं क्लास में था ..........मेरे बच्चे मेरा मजाक करते हैं, पापा जब आप सातवीं क्लास

में थे तभी आप ने सब कुछ किया था ....

पहली बार , सातवीं क्लास में मैं फेल हुआ था ....सातवीं क्लास में ही मेरा बायाँ हाथ फरेक्चर हुआ था....... । सन ५७ में ही नये पैसे चलना शुरू हुआ था ....कनेडियन स्टीम इंजन भी ५७ में आया था

हमारे घर के सामने ,रहने वाले सेवादास ,मेरा हाथ देसी तरीके से बैठाने लगे .....वह दर्द का

मंजर आज भी मुझे याद है .....सन सत्तावन में मैं सातवीं क्लास में था .....मैंने सातवीं क्लास

दो बार पढ़ी .....दूसरी बार मुझे मिला ....मेरा दोस्त रतन ......जो मेरे जीवन में मुम्बई तक साथ

आया .....दोस्त तो बहुत थे ,पर जो बात रतन में थी ......वह किसी दोस्त में नहीं थी ...

मैं सातवीं क्लास से फिल्मी बातें करने लगा .....सब से पीछी वाली सीट पे बैठना ....और पढाई

से जी चुराने लगा ....कहानी सुनना और सुनाना होता .....टीचर मुझे मानते थे ,मैंने स्पोर्ट्स

में मैंने कान्यकुब्ज वोकेशनल स्कूल का नाम किया था

मैं फ़ुटबाल भी बहुत अच्छा खेलता था ..........सन सत्तावन में फिल्म मुगले आज़म रिलीज

हुई थी .....बच्चे तो बच्चे होते हैं ...मैं मुस्करा के ...चुप हो जाता

Thursday, May 20, 2010

हजपुरा

......गाँव में मेरा बचपना छे साल तक बीता...पढ़ाई के लिए ,मुझे

पिता जी , लखनऊ शहर ले आये .....मैं आकेला ही आया ,माँ

गाँव में ही रह गयी ......यह दौर था सन ५१ का ......पिता जी को

स्टेशन के पास रेलवे कालोनी में घर मिल गया था ......दो कमरे थे

एक किचन था ,किचन से लगा वरांडा.....घर स्टेशन से लगा हुआ था

मैं सुबह ही पिता जी के साथ ...उनके आफिस चला जाता .....लखनऊ

स्टेशन के एक नम्बर प्लेट फ़ार्म पे कैश-आफिस था रेलवेका .....जहां

पिता जी एक कैशियर वतौर काम करते थे ....

नाम मेरा अभी तक कहीं नहीं लिखा गया था ......मैं स्टेशन पे घूमा करता

पढाई के नाम पे कुछ नहीं था ......एक नम्बर प्लेट फ़ार्म पे माल गोदाम था ......मैं

घूमते -घूमते ,जब वहाँ पहुंचता .....माल गोदाम का बाबु मुझे जानता था की मैं

मिसरा जी का लडका हूँ ......जिस भी फल का सीजन होता .....वह फल जरुर खिलाता

......जाते -जाते दो -चार फल दे देता था ...

उस समय .....पिता जी सुबह ही खाना बना देते ....मैं और पिता जी सुबह

दस बजे ही खा लेते थे .......लंच नाम की कोई चीज नहीं थी ........शाम को पिता जी मुझे

चारबाग में ही जलपान नाम का एक बंगाली रेस्टोरेंट था .....शायद अब भी है ....उसके थोड़ा

आगे एक दूध की दूकान थी पंडित जी की ......उस पे सिर्फ दूध और दही ही मिलता था ...पिता जी

मुझे जबर्दस्ती दूध पिलाते थे .....फिर घर आ कर चूल्हे ...पे खाना बनाते थे ......कुछ महीने बाद

मेरे छोटे चाचा भी .....पढने के लिए लखनऊ आ गये ......तब वह क्लाश आठ में थे ....

मेरा नाम .....छित्वापुर स्टेशन रोड पे है ....वहीं पे एक गली है ,सरकारी स्कूल है एक,

वहीं मेरा नाम पहली बार लिखाया गया .....हमारे क्वाटर के बगल से भी एक लड़का वहीं पढ़ता

था ,जिसके साथ मैं जाता था .....

मैं महीना भर गया हूंगा ......फिर उसके बाद मेरा नाम रेलवे के स्कूल में लिखा दिया


गया ....एक आश्चर्य की बात बताता हूँ ....जिस स्कूल में मैं ,पहली बार गया था ....उसी के बगल

वाले मकान में ....ससुराल मेरी है ......उस समय मेरी पत्नी शायद पैदा नहीं हुई थी .....

रेलवे के स्कूल में मैं .......कुल महीना भर गया हूंगा .......एक कुत्ते ने दौड़ाया ....और मैं

नाली में गिर गया ...हाथ -पैर में चोट लगी .......बस वही ...मेरा आखरी दिन था उस स्कूल का

........माँ गाँव से आ गयी ........सन ५२ में मेरा नाम कान्यकुब्ज वोकेशनल में लिखा दिया गया

.......और मै क्लाश १२ तक यहीं पढ़ा .....नाम लिखने के बाद से ......मेरे पिता जी कभी भी मेरे

स्कूल नहीं आये .......

वैसे मेरा नाम भी क्लाश दो में लिखा दिया गया ...पहली क्लाश मैंने पढ़ी ही नहीं

क्लास का पहला दिन मुझे आज तक याद है ....मेरी माँ मुझसे मिलने आयीं थी ...एक बड़ा सा

अमरुद ले कर ......उसकी मिठास आज भी मेरी जबान पे है ....उन टीचर की शक्ल भी मुझे

याद है ......इसी क्लाश में मेरा पहला दोस्त बना ....सुभाष भंडारी ....उसके पिता मिलेट्री में

थे ....




Wednesday, May 19, 2010

हजपुरा

....मैं उन यादों को लिख रहा हूँ .....जो मेरे बचपने की वह हैं .......जिनसे

मेरे जीवन का रूप -रंग बदला ....मेरी माँ पे ....देवी माँ का साया था .....जब उन पर आता था

तब वह क्या क्या बोलती थी ......मुझे याद नहीं है ....पर वह भय...आज तक ,

मेरे अंदर छिपा बैठा है कहीं ......जब माँ ...नार्मल होती ....तब वह बहुत थकी

होती थी ....

मेरी दादी ....मुझे बहुत प्यार करती थी .....हमारे गाँव में किसी की

मौत हो गयी थी .....मैं भी जिद्द कर के चला गया था .....पहली बार किसी मरे हुए

इंसान को देखा था ....पर वह सब मेरी समझ में कुछ नहीं आया था ......मुझ में

एक आदत थी .....घर की किसी चीज को मैं ,घर के बगल जो कुआं था ....उस में फेंक

देता था ....घर की लालटेन तक फेंक दिया था ......पर मुझे डांट नहीं पडती थी ...घर का

नौकर (हरवाह ) भोला ......कुएं में घुसता और लालटेन निकाल के लाता था .......

हमारे गाँव के घर में ....चार बैल थे ....जिनसे खेती होती थी ...दो भैंस और एक जर्सी

गाय होती थी ......सुबह चरवाहा आता ....गाय और भैंस को चराने के लिए ले जाता था

.....अक्सर मैं भी उस चरवाहे के साथ जाता था ....वह मुझे किसी एक भैस पे बिठा देता

और गाँव के बाहर तक जाता ....आज जब उन घटनाओं को याद करता हूँ .....तो मुझे कान्हा

का लड़कपन याद आता है .....

बरसात के दिनों में ...गाँव के आस -पास छोटे - छोटे तलाब जो होते थे

पानी से भर जाया करते थे ......मैं अपने दोस्तों के साथ .....इन तलाबो में जाता और

तैरना सीखता था .....पानी के ऊपर एक कीड़ा बहुत तेजी से तैरता था ....जिन्हें हम सभी

भंवरा कहते थे .....दोस्त कहते थे ,इन्हें पकड के पानी के साथ पी जाएँ तो ....तैरना जल्दी

सीख जायेंगें .......यह सच है या गलत ....पर धीरे -धीरे मैं तैरना सीख गया ....

बरसात के दिनों में ....हम सभी लडके कुस्ती लड़ने का अभ्यास करते थे ....दुसरे

गाँव का एक नट आता जो हम लडकों को कुस्ती के दावं सिखाता था ......उसको दो वक्त का

खाना मिलता .....और दो महीने के बाद जब जाता .....तब उसे हर घर से अनाज मिलता ...

जिसे वह ,अपने घर ले के जाता था ......मैं बचपने में बहुत तगड़ा था ......अपने दोस्तों को

कुस्ती में हरा देता था ......इसी वजह से मेरे काफी दोस्त बन गये थे ........जो आज तक हैं

आज भी जब गाँव जाता .....सभी मिलते और उस बचपने को याद कर के खूब मजा लेते ...

भागु मेरा सबसे प्रिय दोस्त था .....आज भी वह मेरा दोस्त है .......उसके बाद ,

हिरदय मणि मेरे दोस्त थे ......गाँव में आज उनका एक कालेज है ...जिसके वह प्रिंसपल हैं


फिर राधे का नाम आता है ......हम दोनों बचपन में करेमुं नाम का एक पौधा ...जिसे शहरों

में नारी का साग कहते हैं ...तोड़ने किराहिया नाम का एक तलाब था ,जिसमें जाते थे .....

हम दोनों अपने कपडे उतार के ....तलाब के किनारे रख देते थे ,फिर उस तलाब में उतरते ...

नहाते हुए ....करेमुं का साग तोड़ते ......

आज राधे श्याम मुम्बई शहर में टैक्सी चलाते हैं .......हम लोगों का एक और दोस्त है ,जो

गाँव के कहांर का लडका है ....नाम सुरेस है ......बचपने में हम लोगों को जब दुसरे गाँव से पूड़ी की

दावत मिलती ....यह दावते अक्सर हम पंडितों को मिलती थी .....और रात को यह दावत

होती थी .....हम दोस्त सुरेस को अपने साथ ले लेते थे ....जो जात का पंडित नहीं है ....हम जब

पांत में बैठते ....उसे भी अपने बगल बिठा लेते .....उसके गले में एक जनेऊ डाल देते ,जिससे कोई

उसे ना पहचान नहीं सके ......दोस्तों में यह मेरी जिद्द का नतीजा होता ....सुरेश भी १४ से १५ साल

की उम्र में मुम्बई आ गया था ......एक पान की दूकान पे काम करता था ...कमाठीपुरा में .....२३ या

२४ उम्र में कहीं गायब हो गया .....दस से पंद्रह साल बीत गया ......पत्नी अपने दो बच्चों को ले कर

अपने गाँव चली गयी ...

फिर कई सालों बाद वह अपने गाँव आ गया .......जो उसने बताया वह कमाल का था

उसे मुम्बई में कोई साहब मिले .....जो इसको जर्मनी ले कर गया .....और इतने सालों तक वहीं ही

रहा ...जब मैंने उससे पूछा ....चिट्ठी क्यों नहीं लिखा घर में ......जो उसने बताया .....वह बहुत

अजीब है .....यह उनकी कैद में था ....घर से बाहर तक नहीं निकल सकता था ...

यह कहाँ तक सच है .....मुझे नहीं मालूम ......कुछ साल घर रहा .....फिर मुम्बई आया

और फिर से गायब हो गया .......इसकी पत्नी बच्चे अकेले हो गये ,फिर से ....इसके बेटे को .....

मेरे भाई लखनऊ ले आये ......और हमारे घर पे रहने लगा ....आज वह, यम .बी .एय .कर रहा है

पिता का पता नहीं ,फिर से इस मुम्बई में खो गया ...वह.........!
...

कुछ लोग कहते हैं , वह मछुहारों के मोहल्ले में रहता है .....एक शादी कर ली है ...क्या सच है ...

नहीं मालूम .....

Monday, May 17, 2010

हजपुरा

हजपुरा ..........मेरे गाँव का नाम है .....उत्तर प्रदेश में ...अयोध्या नाम का एक शहर है

उससे चालीस मील पूरब में जिला आंबेडकर नगर है .....कचहरी से जलाल पुर की तरफ

एक सडक जाती है .......उसी सडक पे करीब सोलह मील पे सडक के किनारे ...हजपुरा गाँव

है ......यहीं मैं सन १९४५ में पैदा हुआ था .....जुलाई का महीना था ......उस शाम खूब बारिश

हुई थी ....तारीख थी १७ ...और मैं इस संसार में आया था ॥

मेरा भरा पूरा परिवार था कई दादी थी कई बुआ थीं ....कई बाबा थे दो चाचा थे जो मुझसे

सिर्फ दस बर्ष बड़े थे ,,,,,मेरे दादा जी पैसे वाले थे ......घर का पहला नाती आया था .....खूब ढोल -ताशे बजे

घर में सभी पढ़े - लिखे थे ....दोनों चाचा होस्टल में रह के पढ़ते थे ......मेरे पिता लखनऊ में रेलवे में नौकरी

करते थे .....मेरे दादा भी रेलवे में स्टेशन मास्टर थे .......

मेरे दादा जी के दादा जी ने दो शादियाँ की थी .....पहली शादी से मेरे बाबा जी के पिता थे

सरजू प्रसाद मिश्र थे ......दूसरी शादी से उनकों चार बेटे हुए .....और मैंने बचपने में उनकी पत्नी को देखा था

हम लोग उन्हें बैहरो दद्दी कहते थे .....उनका रंग सावंला था ....काफी बूढी थी ......लेकिन उनके चारो

बेटो को एक -एक बेटी हुई .....लेकिन बेटा नहीं हुआ ........

जब मैं छोटा था .....पूरा परिवार मुझे बहुत प्यार करते थे, दो घर थे .....मैं कभी इस दादी

के साथ खेलता था .....घर के बाहर इतनी चारपाई लगती थी .....जैसा आधा गाँव सो रहा हो .....कभी इस

घर में खाना खाता था ....कभी अपने घर में .......मैं दिप्पन दादी को बहुत प्यार करता था ....वह बहुत सुंदर

थी ....गोरा रंग था उनकों एक बेटी थी उनकी शादी हो गई थी .....एक दूसरी दादी थी उनकों लूटना दादी

कहता था ....उनकों भी एक बेटी थी ....जो मुझसे तीन साल बड़ी थी ...मैं उनके साथ और अपनी बड़ी बहन

के साथ खेलता था ....हमारी एक आम की बाग़ थी ......खूब आम लगते थे उसमें ...

आज जब भी अपना बचपना याद करता हूँ .....एक कहानी की तरह सब कुछ लगता है .......मैंने चलना

कब सीखा मुझे याद नहीं .......माँ मेरी पढ़ी -लिखी नहीं थी ......मैं उनका पहला बेटा था ......मेरी मालिस

करने के लिए .....कौली को रखा था ....जितनी बार कौली मालिश करती ....वह माँ को आ के बताती ...माँ

दीवार पे कोयेले से दीवार पे एक लाईन खींच देती थीं ....और शाम को गिनवाती थी .....

करीब ....दो साल का जब हुआ .....तब मुझे चेचक निकली ....मेरा एक और छोटा भाई हुआ था ...जिसकी

मौत इसी चेचक में हो गयी .....करीब तीन साल का जब हुआ .....हमारे घर में चोरी हुई ......पहली याद

मुझे इसी बात की है ......हमारे घर के आँगन में घुसने के लिए ....तीन दीवालों को छेद करना पड़ता ....गाँव की

भाषा में सेंध लगाना कहते हैं ....इसको

पुलिस आई .......और कुछ नहीं याद है

अपनी बहन के साथ ....गाँव के स्कूल में जाता था ......

दादी मुझे अपनी गोद में ले लेती थी और भैंस का दूध निकालते समय मेरा मुहं ....भैंस के थन से निकलता

हुआ दूध मेरे मुहं की तरफ कर देती थी .......मुंह में गुदगुदी लगती थी ...........

Monday, April 26, 2010

भौजी

सारा गाँव ,उन्हें भौजी बुलाता था ....यह आज की बात नहीं है । यह दौर है ,

सन पचास से सन साठ का ....अभी कुछ वर्ष पहले देश आजाद हुआ था ।

गरीबी बहुत थी ...दो वक्त का खाना ,नसीब नहीं था ...बच्चे एक लगोंटी में

घूमते थे .....भौजी ही एक ही थी ....जो सभी का ख्याल रखती थीं ....उनके पति

रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर थे .....भौजी के तीन बेटे एक बेटी थी बड़े बेटे भी

रेलवे में नौकरी करते थे ....लखनऊ शहर में ...., छोटे दोनों भाई उनके साथ रह के

पढ़ते थे .....गाँव में खेत थे ....लेकिन सिचाई के साधन नहीं थे ...फसल वगैर पानी

के सूख जाती थी ......

भौजी ही एक थी ....जो गरीबों को धन से अनाज से सहायता करती थी ....किसी

गरीब के घर में शादी ब्याह पड़ा , तो भौजी को सारा इंतजाम करना पड़ता था...गिरधारी

ने अपनी बीबी को निकाल दिया तो ........भौजी ने उसे अपने घर में रख लिया ...उसके बच्चों

का ख्याल रखा .... गरीबी से तंग आ कर किसान शहर की तरफ भागता ....भौजी से किराया लेने आता

भौजी जल्दी पैसा नहीं देती ....उससे पूछती ...ए....निरहू ...तू तो जात हया शहर......यहाँ तोहरे

लडकन का के देखे ......निरहू का एक ही जवाब होता भौजी ....तू हऊ ...न ....और वह

आदमी इतना कह के रोने लगता .....अब भौजी कुछ नहीं बोलती .....और घर में से दस रुपया

निकाल के लाती ....और उसे देती .......उस समय कलकत्ता का किराया ...सात रुपया था

.........निरहू के जाते ....जायर मियां आते ...उनके सर पे एक टोकरी होती ......भौजी के सामने

उतार के रखते ...आमों से भरी टोकरी होती ......गाँव में सबसे पहले ...इनके ही पेड़ के आम

पकते थे .....जायर मियां के बच्चे खाए या ना खाएं ...भौजी के घर आम की टोकरी पहले

आती ....यह वह समय था जब आम बेचने का रिवाज नहीं था .....भौजी की बिटिया की शादी

जमींदार घराने में हुई थी ......आम के सीजन में ....जमींदार साहब आठ से दस टोकरी आमों की

भेजते थे ....जायर मियां की टोकरी घर के अन्दर चली जाती....घर में खाने वाले भौजी नाती पोते

थे ..जो शहर से गर्मिओं की छुट्टी में आते थे ......

जायर मियाँ अपनी टोकरी के इन्तजार में बैठे रहते ......भौजी पूछ लेती ....कोई चीज की

जरूरत तो नहीं है ?........जायर मियाँ धीरे से कह देते ......भौजी यह साल ...सब अरहरिया

झुराय गय.......भौजी समझ गयी ....और घर के अंदर से टोकरी में अरहर की दाल ही

आयी .....और जायर मियां ने टोकरी सर पे रखी ....और अपने घर की तरफ चल दिए

भौजी एक इशारे पे काम करने वालों की लाइन लग जाती थी .....भौजी के पति ने

जितना कमाया ....वह सब गाँव वालों पे लग जाता .....पर उनके पति ने कभी नहीं पूछा

...पैसा कहाँ जाता है ?.......समय के साथ -साथ चीजे बदलने लगी ....भौजी के पति रिटायर

हो कर घर आ गए .....सन सतावन में रिटायर हुए थे .....पति के आ जाने से ....भौजी के बांटने

में थोड़ी कमी जरूर आई .....पर रोब -दाब वही रहा .....उनके पति को सभी दादा जी कहते थे

वो घर के द्वार पे ही बैठे रहते थे ......दादा जी सरकारी नौकरी कर के आये थे ...बात -चीत शहरी

नुमा थी ......गांव के लोग डर के मारे दादा जी से दूर ही भागते थे .... अब गांव वाले भौजी से ......

मिलने पिछवाड़े से आते थे .....और भौजी भी उसी तरह बांटती धन ...अनाज .... ।

भौजी को फालिज का अटैक पड़ा .....वह शहर गयी ....बड़े बेटे के पास वहीं

उनका इलाज होने लगा ......लेकिन उनका एक अंग काम नहीं करता ......यहाँ उनकी बडी बहु

सेवा करती ......चार -छे महीने के बाद .....भौजी गांव जाने की जिद्द करने लगी .....एक दिन

भौजी के बड़े बेटे ने पूछा .....माई घर जा कर क्या करोगी .....यहाँ तो सभी हैं बेटे बहु पोते गांव

में तो कोई नहीं है .......भौजी ने कहा .....हमें तुम लोगों की इतनी मोह नहीं लगती ....जितनी

गांव वालों की याद आती है .....मुझे वहीं भेज दो ......कुछ दिनों बाद भौजी को गांव भेज दिया

गया ......सारा गांव ...उमड़ पड़ा उनकों देखने के लिए .....और अपनी आखरी सांस तक गांव

में ही रहीं ......आज भी .....हर गांव वाला अपनी तकलीफ ले के आता ......और भौजी उसको

पूरा करती ....

भौजी की मौत सन अस्सी में हो गयी .....आज भी गांव में भौजी को लोग याद करते हैं ...हर गांव वाले

के पास अपनी एक कहानी है .....कब -कब भौजी ने उसकी सहायता की थी ......आज भी भौजी

का बनाया हुआ मकान वैसा -का वैसा है ....डेढ़ गजी दीवार आज तक वैसी ही मजबूती से है .....घर के कोठे

सुने पड़े हैं ......कभी अनाज भरा रहता था .......अब सूना है .....उनके नाती पोते शहरों में रहते हैं

गांव की कोई खबर नहीं लेते .......भौजी के ही दान पुन्न से ....नाती पोते बड़े -बड़े साहब बन गए ..पर

......आम की बगिया सुनी पड़ी है ......खेत ...भौजी को सोच सोच के रोते हैं .......नहीं तो उनका

पैदा किया हुआ अनाज भूखों के पेट तक जाता था .......अब कहाँ जाता है किसो क्या मालूम

.........एक दिन जरूर आएगा ....किसी को भौजी का अंस मिले गा ....और अपने गांव की सेवा

करेगा .......

Wednesday, April 21, 2010

माँ

सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था ,एक दिन पंडित जी का जवान बेटा गुज़र गया ,
बहुत बड़ी खेती थी ...अब उसे कौन देखेगा ? यही विचार उनके मन में गूंज रही थी ,
खुद भी साठ से ऊपर हो चुके थे ....उनका वंस कैसे चले गा ? बेटे के अचानक गुजर
जाने से ....उसकी पत्नी पेट से जरुर थी ....बेटे के इस तरंह गुजर जाने से ....पंडित जी
की पत्नी ....अपने आप को नहीं सभाल पायी ...और आठवे महीने में ही ....बच्चे को जन्म
दे दिया ......एक आस थी ...वंस चलने की , लगता था ....वह भी नहीं पूरा अब होगा ।
लेकिन जब दाई ने आ के बताया ...बेटा हुआ ...और ठीक हैं जच्चा और बच्चा । यह सुन कर
पंडित जी .....की खुशी सातवें आसमान जा पहुंची .....अब उनका वंस चल जाएगा .....
गाँव भर के लोगों को .....दावत दी गयी ....नाच गाना हुआ ...घर में भरा अनाज
गाँव भर बांटा गया ....बेटे के गुजरने का गम थोड़ा कम हुआ ....एक आश जगी, आने वाले कल की
उन्होंने बेटे का नाम भी सोच भी लिया .....हिरदय मड़ी ......सब कुछ तो ठीक था ....लेकिन
बच्चा... दूध माँ का नहीं पी पा रहा था .....दाई ने पंडित जी को आ कर बताया ....माँ का दूध
सूख गया है ....दाई ने कहा ...गाय का दूध पिलाने की कोशिश की लेकिन वह भी नहीं पी रहा है
अब एक ही रास्ता है ,.......किसी औरत का ही दूध पिलाया जाय......! पंडित जी
यह सुन कर कुछ समझ नहीं पाए .....दाई को कहा ....मुझे कुछ नहीं मालूम ...मेरे पोते को कुछ
नहीं होना चाहिए ।
दाई ने कहा ........अब एक ही रास्ता है .....हरखुआ की मेहरारू को बच्चा हुआ है
अब आप ही बताओ ...क्या किया जाय ....पंडित जी बोल पड़े .....हमार पोता हरखुआ की
मेहरारू का दूध पियेगा .....? गाँव छोटा था पाँच घर पंडितों का था ....दो घर बनिओं का था
और रहने वाले लोग गाँव के भर जात के थे ......और हरखुआ भर ही था ...
रात दूसरा पहर बीत रहा था .....पंडित जी का पोता .....भूख के मारे रोता ही जा रहा था
......छोटा सा गाँव था .....पंडित जी पोते की बात....सभीको पता लग गयी थी ...माँ का दूध
सूख गया है ....और पंडित जी एक भरिन के शरीर का दूध कैसे पिलायेंगें ?......गांव के बूढे -बुजूर्ग ,पंडित जी के घर के सामने इकठा हो गये थे .....सभी का यही कहना था .....हरखुआ के घर की गाय का
दूध आप पी लेंगे ... ब्च्चुआ को पिला देगें ...पर ओकर मेहरारू का दूध काहे नहीं .....?

हरखुआ की मेहरारू को बुलाया गया .....और पंडित जी के वंस को पालने के लिए
भ रिन ने अपना दूध पिलाया बच्चा चुप हो गया ....साल भर तक वह औरत पंडित जी के
पोते दूध पिलाती रही ....उसका बेटा ज्यादा दूध नहीं पी पाता था...हरखुआ का बच्चा बीमार
रहने लगा ......अब पंडित जी का बेटा .....ऊपर का दूध पीनेलगा ....और अब पंडित जी ...
पोते को ...हरखुआ के घर नहीं भेजते थे ........

इसी बीच गाँव में चेचक का रोग फ़ैल गया ....राम मिलन को भी चेचक निकली .....

और वह नहीं बच पाया ...माँ की कोख सुनी हो गयी .....वह रोई ......बहुत रोई ....उस बच्चे

को देखना चाहती थी ....जिसे उसने दूध पिलाया था ......पर पंडित जी ने ....उस दुखी माँ के

पास अपने पोते को नहीं भेजा .....

..........पंडित जी नहीं चाहते थे .....उनके पोते को किसी की नजर न लगे .....वही उनके वंस को चलाने

वाला था ....धीरे -धीरे समय बीतने लगा बच्चा पाँच वर्ष का हो गया ......इसी बीच पंडित जी

की बहु का देहांत हो गया .....यह सब देख कर बच्चा बहुत सहम गया ....और उस दूध पिलाने वाली

माँ के पास आ गया । हरखुआ की बीबी यह देख कर बहुत खुश हुई ..बहुत अर्से बाद माँ की मुराद पूरी.हुई ..पंडित जी अब हार गये .....उनका पोता फिर से वहीं पलने लगा ...बस थोड़ी देर के लिए अपने घर
एक दूध पिलाने वाली माँ को अपना बेटा मिल गया ...उसका दर्द कुछ कम हुआ ..........
समय के साथ हिरदय मड़ी बड़ा हो गया .....उसके दादा जी भी गुजर गये
......और अपनी दूध पिलाने वाली माँ के साथ रहने लगा ....समय के साथ -साथ

हिरदय मणीकी शादी हो गयी ....उसके अपने बच्चे होगये ..हरखुआ भी मर गया .हिरदय मड़ी ....
उस बूढी माँ को अपने घर ले आया .........जो पत्नी को अच्छा नहीं लगा .....
पति ने सारी कहानी बताई .....उसे जीवन देने वाली औरत उसकी माँ नहीं ...यह औरत है

.....कैसा उसका बचपना बीता......पत्नी... पति के दर्द को नहीं समझ पायी

.............पत्नी ....माँ के प्यार को बर्दाश नहीं कर पायी .....बूढी माँ ....एक दिन घर के कुएं

में गिर के मर गयी ......बेटा इस हादसे को जान गया था .....किसी से कुछ नहीं कहा और एक

शाम ......उसने सोचा वंस चलने के लिए दो बेटे थे ! .......अपने बाबा को दिया वादा पूरा

कर दिया था .....और घर छोड़ के कहाँ चला गया ,किसी को कुछ नहीं मालूम ......





Monday, April 19, 2010

धन्नों बुआ

.......धन्नों बुआ ....गाँव भर की बुआ थी ....पांच भाईओं की बहन

सभी भाई अपना -अपना परिवार ले कर अलग अलग रहते हैं ... ॥

धन्नों बुआ को भी दो कमरे दे दिया था ....तीन बीघा जमीन दे दिया था

उसी से उनका गुजारा होता था .....करीब आठ से दस साल की थी ,

तभी उनका विवाह हो गया था ....और गौना करीब तेरह साल में

.......
जब अपने घर पहुंची ,बहुत बड़ा परिवार था ,पाँच भाईओं की दुलारी थी

यहाँ आ कर इतने बड़े परिवार में अपने पति को खोजना ....बड़ा मुश्किल काम

था .......इतना बड़ा घूँघट करना पड़ता था की जमीन के अलावा कुछ नहीं दिखाई

पड़ता था ..दो दिन तक बुआ अपनी सास के साथ सोती रहीं ....पति के दर्शन तक

नहीं हुआ ,उस जमाने में लडकियाँ अपने पति के बारे में कुछ नहीं पूछ पाती थी

बुआ ने कहा, उनके भाई चौथी ले कर आये .....मैंने सोच लिया था ...मैं अपने

भाईओं के साथ अपने गाँव चली जाउंगी .....और मुझे मालूम था मेरी बात मेरे भाई जरुर

मान जायेगें .....जब मैं अपने भाईओं से मिली .....उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी ....पहली

बार मुझे अपने भाईओं पे बहुत गुस्सा आया । उन्होंने ही मुझे बताया गौरी शंकर जेल में बंद हैं

........मुझे तब तक जेल का ,क्या मतलब होता है मुझे नहीं मालूम था । और जेल भी गये हैं देश

को आजाद कराने के लिए ....कब आयेंगे किसी को कुछ नहीं मालूम था .....गौरी शंकर मेरे पति थे

महीना बीत गया .....इसीबीच पुलिस आयी और हमारे घर की कुडकी हो गयी ....मुझे मेरे

घर पहुंचा दिया गया ...अपने परिवार से मिल कर बहुत खुश हुई और मैंने यह सोच लिया था

अब मैं कभी भी ...अपने ससुराल नहीं जाउंगी ........करीब दो महीने बाद ....मैं विधवा भी

हो गयी ......भैया ने बताया ,गौरी शंकर की मौत जेल में हो गयी .....मुझे मेरी माँ ने सफेद

साड़ी पहनने को दिया..तब मुझे सफेद और रंग दार में बहुत ज्यादा फर्क नजर नहीं आता था

माँ और पिता के मरने के बाद ....भाई लोग अलग हो गये ,मेरा लगाव सब से

छोटी भाभी से था ......मुझे भी हिस्से में जमीन मिली और आम की बाग़ में से तीन पेड़ भी

मिले ......मैं ...बुआ ने बताया ...उनका अलग रहना ....भाईओं को अच्छा नहीं लगता था

हर कोई यही चाहता था ..मैं उनके साथ रहूँ ......मैं आजाद रहना चाहती थी ....और वही

किया ....बुआ कहती थी उनके खेतों में खूब पैदावार होता था .....और मेरे आम के पेड़ों में भी

खूब आम लगते थे .....अकेली जान इतने आम कैसे खाऊं आम को उस समय बेचने की रवायत

नहीं थी .......मैं आमों को गाँव में बाँट देती थी .......अनाज का भी यही करती थी .....तभी से राज

कुमारी से मैं धन्नों बुआ हो गयी ।

वक्त के साथ -साथ दिन बीतने लगे .....बुआ चालीस पार कर चुकी थी देश आजादहो गया था

एक दिन एक अजनबी आदमी इनके घर आया और अपने आप को गौरी शंकर बताने लगा ......

बुआ ने उसे पहचाने से मना कर दिया ....और सीधे ही कह दिया .....मैं बिधवा की तरह जीती रही

अब मैं सोहागन बन के नहीं जीना चाहती .......भाईओं ने भी समझाया .....पर धन्नों बुआ जो जिन्दगी

जी रहीं थी ....उसको अब छोड़ना नहीं चाहती थी ......

गौरी शंकर चले गये .......उसके बाद कभी नहीं आये ......और न ही बुआ का हाल

जाना ......सन पचास था ...मैं करीब चार या पाँच साल का था .....मैं जब शहर से गाँव आता

था ...मैं धन्नों बुआ के पास सोता था ....उस समय वह करीब साढ़ के करीब थी ...मुझे बहुत

प्यार करती थी ....दो महीने इनके साथ रहता था ....आमों का मौसम होता ....मुझे आम रस

देती थी उसके साथ रोटी ........ अक्सर मुझसे कहती .....जब मैं मरूँ मुझे चन्दन की

लकड़ी पे जलाना .....और मैं पूरा वादा करता ....वैसा ही करूंगा ...जैसा वह कह रहीं है ......

......पर मेरे वादे सब झूठे हो गये ....सत्तर साल की उम्र में उनका देहांत हो गया .....मै जा भी नहीं

पाया उनकी जमीन पेड़ हम लोगों को मिल गये ......

धन्नों बुआ जब मरी .....हम लोगो ने गौरी शंकर जी को बुलाया .....लेकिन उन्होंने बहुत कहने

पे मुखाग्नी दी .........धन्नों बुआ की एक छोटी सी बक्सी थी ......उसे जब खोल के देखा गया

उसमें एक लाल रंग की साड़ी थी ...जिसे पहनके उनकी शादी हुई थी .....

वह शादी का जोड़ा ....मेरी माँ ले आई थी ....और मेरी पत्नी को दिया था .....और एक ही

बात कही थी .....जीना तो .....धन्नों बुआ की तरह जीना .......

Wednesday, April 14, 2010

डाकू मामा

........हम बच्चे , उन्हें डाकू मामा कह के बुलाते थे । क्यों बुलाते थे ?

नहीं हमें मालूम .....एक दिन , मैंने अपनी दादी से पूछा ....दादी , ये डाकू मामा ,

सच -मुच के डाकू हैं ? दादी ने जो बताया , वह मेरी समझ में नहीं

आया । डाकू मामा की .....दो साल की बिटिया को .....दिप्पन दादी पालती थी ,

जिसे देखने के लिए ....डाकू मामा आते थे । मेरे घर के सामने का घर दिप्प्न दादी


का था ......दिप्पन दादी ,बहुत गोरी थी .....मुझसे बहुत प्यार करती थी ......वह मेरे

पिता की भी दादी थी ....जब मैं गाँव आता ,मैं उनके ही पास सोने की जिद्द करता था

.........एक तरफ चंदा सोती और एक तरफ मैं ......

आज डाकू मामा , चन्दा को देखने आये थे .....जब भी आते ..... गुड की बनी

मिठाई जरुर लाते थे ....उस समय गाँव में गुड की ही मिठाई बनती थी ....चोटहा गट्टा ले

कर आते थे ....दिप्पन दादी हम सभी बच्चों को देती थी । डाकू मामा बहुत लम्बे थे ,एक

आँख ...दूसरी आँख से बहुत बड़ी थी ,जिससे उनका चेहरा डरावना लगता था । कोई भी बच्चा

उनके करीब नहीं आता था ,बस दूर से या छिप के " डाकू मामा "कह के हम उन्हें चिढाते थे ।

डाकू मामा अपनी एक आँख निकाल के , हम बच्चों को डराते थे .....दिप्पन दादी

के सगे भाई थे । यह मेरी दादी ने मुझे बताया था ,लेकिन मैं उनसे नहीं डरता था । दोस्त मेरे

मुझे बहादुर समझते थे ,डाकू मामा ने शादी नहीं की थी .........फिर यह चन्दा कहाँ से आयी ?

..........यही सब, मेरी मंडली जानना चाहती थी ......हम सभी लडके ,आम की बगिया में बैठ

के आपस में यही बात करते थे .....राधे कहता था ,हमें भी डाकू बन जाना चाहिए ....तब हम

कुछ भी कर सकते हैं ....हमें स्कूल भी नहीं जाना पड़ेगा ,और ना ही मुंशी जी की मार खानी

पड़ेगी ...

मैंने कहा .....मैं डाकू मामा से पूछूंगा ....डाकू कैसे बना जाता है ?.....मेरी बात

से सभी सहमत हो गये । सुरेस, कहांर जात का था ....लेकिन वह हमारे साथ ही रहता था ।

जब कभी ....हम पंडितों को दावत मिलती किसी दुसरे गाँव से ,हम उसे भी ले जाते थे ......

उसे एक जनेऊ पहना देते थे और अपने साथ ही पांत में बैठा लेते थे ,किसी को भी शक नहीं होता

था .......यह कहांर का लडका है । हम लडके पूड़ी खाते -खाते कुछ पुड़ियाँ छिपा के अपनी हाफ

पैंट की जेब में डाल लेते थे .....घर आ के इकठा करते ...जब भी मैं गाँव आता ...एक कुत्ता जरुर

पाल लेता ....इसी कुत्ते के लिए हम पुड़ियाँ लाये थे ....उसे खिलाया करते थे

रात को ,दिप्पन दादी के पास सोते हुए ,मैंने पूछा ....."दादी डाकू मामा सच में डाकू हैं " ?

.......वह मेरी तरफ थोड़ी देर तक देखती रहीं .....फिर कहने लगी .....मुझे मालूम है ...तू क्यों जानना

चाहता है ? .....बेटा .....,बहुत साल पहले की बात है,मेरी शादी तेरे दादा जी से तै हो गयी थी ,

डाकू मामा जी मेरे बड़े भाई थे .....शादी से दो रोज पहले ,हमारे घर पे डाका पड़ा .....डाकू मामा

शुरू से ही कुस्ती और पहलवानी का बहुत शौक था .....आस -पास इलाके में उनका जैसा कोई

तगड़ा इंसान नहीं था । डाकू मामा .....उन डाकुओं से लड़ते हुए ....अपनी आँख तक गवा दिया

......इसी घटना के बाद से सभी लोग उन्हें डाकू मामा ...कह के बुलाने लगे .....और यह चन्दा

मामा जी की सगी बेटी है .......यह गाँव वाले जो कहते ....उन्हें मत सुना कर .....दिप्पन दादी की

बात सुनते - सुनते कब सो गया ....आगे क्या बताया मुझे नहीं मालूम ....

इस घटना को .....करीब चालीस साल हो गये ....न दिप्पन दादी रहीं ....न डाकू मामा जी

वो चन्दा आज भी है ......उसकी शादी एक अच्छे खानदान में हुई ....दो बेटियाँ हैं ......और डाकू मामा

जी इतना धन छोड़ के गये हैं .......लोग आज भी कहते हैं ...सब लूटा हुआ माल है ....चन्दा ,जो आज

मौज से रह रही है ......डाकू मामा की देन है ....

चन्दा के पास सच में बहुत धन है ....एक सेठानी की तरह रहती है .......रिश्ते में मैं उसे

बुआ कहता हूँ ....आज भी हमारे घर में कोई भी तीज -त्यौहार होता है उन्हें जरुर बुलाया जाता है


..............हमारी मण्डली आज भी मिलती है ....आज भी ,वह आम की बगिया है .....पर सारे पेड़

बूढ़े हो गये हैं, फल भी बहुत कम लगते हैं ........हम सभी भी तो बूढ़े हो गयें हैं ...... ।





Tuesday, April 13, 2010

भय

.....बहुत छोटा था , करीब सात साल का ,गर्मी की छुट्टी होते ही ,मैं अपनी

दादी के पास गाँव आ जाता था । सबसे बड़ा सुख था यहाँ कोई पढने को नहीं

कहता था ,मैं दादी की उंगली पकड कर अपनेगाँव में घूमता था ।

दादी को मैं तीन माई कह के बुलाता था , क्यों बुलाता था मुझे नहीं मालूम

मेरी दादी मुझे बहुत प्यार करती थी ,जब भी वह भैंस को दुहने जाती थी ,मुझे बुलाती

और भैंस की थन के पास मेरा मुंह कर देती .....और भैंस की थन का दूध मेरे मुंह में गारती

........मुझे मुंह में गुदगुदी लगती ........बहुत मजा आता .......शहर आ कर जब यह सब दोस्तों

को बताता ....वह सब लोग यकीन ही नहीं करते ......

दिन बड़ा गर्म होता था ,दादी मुझे घर से बाहर नहीं जाने देती थीं ,कहती लू लग जाएगी

.......गाँव में मेरे दोस्तों की एक मंडली थी .....हम सभी दोस्त दोपहर को घर से निकलते और

आम की बगिया में जा घुसते ......हम लोग अपने साथ एक चाकू रखते थे .....जिस पेड़ का आम

कम खट्टा होता , उसको तोड़ते और उसका छिलका बनाते ....और ढाख के पत्तों में रखते और

घर से छुपा के लाया हुआ नमक , जिसमें लहसुन और लाल मिर्ची पिसी होती थी .....उन छिलकों

पे डालते थे .....और उसके बाद इस तरह खाते जैसे कोई दावत हो .......वह चटखारा मैं आज तक

नहीं भूला .....कच्चे आमों का छिलका खाने के बाद प्यास बहुत लगती थी ......हम लोगों की बाग़

में एक कुआँ भी था .....उसमें पानी भी बहुत था .....लेकिन उसकी गहराई देख कर डर लगता था

.........हम सभी को प्यास लगी होती थी ......गाँव दूर होता था ....घर जा कर पानी पीना ,मतलब

धूप में जाओ ....हम सभी लडके नंगे पैर होते थे .....गर्मी की वजह से पैर जलता था ....हम में

भ्गू ज्यादा समझदार था ....वैसे इनका नाम दयाराम था .....पर हम लोग भ्गू बुलाते थे ,वह इस

लिए की वह बहुत तेज दौड़ता था । उसने ढान्ख के पेड़ों से उनका छिलका उतारा ,उसकी रस्सी

बनाई ......और ढ़ाक के पत्तों को पत्तल बना कर ,,एक लोटा जैसा बनाया ......और कुएं में डाल कर

पानी निकालता .......आधे से ज्यादा तो गिर जाता .....थोड़ा सा जो बचता वह हमें पिलाता ....

.....इस गर्मी में कुएं का ठंडा पानी .... अम्रत जैसा लगता ........

जब हम लोग बाग़ में बैठे थे शाम होने वाली थी .....तभी एक चिक बकरी ले कर आया ....हमारी

बाग़ से थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे बैठ गया .....गाँव से एक दो लोग आने लगे करीब सात -आठ लोग हो

गये .......हम लोग भी वहाँ पहुँच गये .....उस कसाई ने एक बड़ा सा चाक़ू निकाला .....और बकरी के

गले पे लगा रेतने .......और बकरी लगी चिल्लाने .....यह सब देख कर मैं इतना डर गया .......तेजी से

वहाँ से भाग निकला ......घर पहुँच कर सांस ली .....दादी ने पूछा भी मुझ से ,इतने डरे क्यों हो ? क्या

होगया ...मैं कुछ बोला नहीं .....

दिन ढल चुका था .....मैं घर से बाहर निकला ......और उसी पेड़ की तरफ गया ......अभी भी

वहाँ भीड़ थी ....पेड़ की डाल पे बकरी की टांग बंधी हुई थी .बकरी का सर एक तरफ कटा हुआ पड़ा था

......वहाँ पर खड़े हुए लोग ....खरीद रहे थे ,उस बकरी का गोस्त ....उस बकरी का लटका हुआ धड

खून से सना हुआ ....मैं देख कर डर रहा था, थोड़ी देर पहले यह अपने चार पैरों पर चल रहा थी ...अब

एक पैर से लटकी हुई है ......

आज मेरा मन बकरी को कटते देख कर .......इतना डर गया ....जैसे कोई मेरे गले पे

चाकू चला रहा हो ....उस रात मैं ठीक से सो भी नहीं पाया ......सुबह उठा ......गाँव में शहर की तरह

का नहाने की जगह नहीं होती ....लोटा ले कर मैदान की तरफ जाना पड़ता है ....फिर हम तीनो

दोस्त इकठा होते .......और जंगल की तरफ चल देते .....एक पोखरा था ......उसी के आस -पास

......बांस का जंगल था .....और ठाकुरों की आम की बाग़ थी ......हम तीनो दोस्त पंडित जात के थे

.......सभी लोग हम लोगों को प्यार करते थे ......मैं तो शहर में रहता था ,वहीं पढ़ता भी था .इसलिए

मेरी कुछ ज्यादा इज्जत थी ....

यहीं हम तीनो दोस्त मैदान जाते नीम की दंतून तोड़ते .....फिर उसी पोखरे में नहाते ....

मुझे तैरना नहीं आता था , यहीं इसी पोखरे में मैंने तैरना भी सीखा था....



आज ......मैंने अपने दोस्तों से कहा.......उस कसाई को हमें मारना है ......दोस्त समझे नहीं

ऐसा क्यों कह रहा हूँ .....मेरी सभी बात मानते थे ....वजह थी मैं शहर का था .....मेरी पढाई अंग्रेजी

स्कुल में होती है ......मुझे अग्रेजी का अक्छर ज्ञान है .....हम लोग अब कसाई को मारने का प्लान

बनाने लगे .........

हमारे एक दोस्त के पास बन्दूक थी ......हमें कैसे भी एक दिन को चुरानी थी .....और उस

कसाई को दिखा के डरानी थी ......आज के बाद वह किसी बकरी को नहीं मारेगा ....

......फिर एक दिन दोपहर को , हम तीनो मिले ....बन्दूक का इंतजाम हो गया .....अब हमें कसाई

को खोजना होगा .....हमें यह भी पता चल गया .....जिस दिन बाज़ार का होता है ...उसी दिन .....

कसाई बकरी ले कर आता है .......


हम तीनो अपनी बाग़ छिप के बैठ गये ....और बन्दूक भी हमारे पास थी .....करीब चार

बजे ...चिकवा बकरी लाता हुआ दिखा ...... भगू ही उसके पास गया .....और उसे बाग़ में बुला के ले

आया ....जैसे वह हम लोगो के पास पहुंचा .....उसका चेहरा डरावना था ....वैसे भी कसाई के चेहरे

डरावने हो जाते हैं ....जैसे वह हमारे करीब पहुंचा .....मैंने बन्दूक तान के कहा .....आज के बाद

तुम किसी बकरी को नहीं मरोगे ......वरना .....तुमको इसकी गोली खानी पड़ेगी ......

........कसाई बोला ,यह तो मेरा काम है .....यह नहीं करूंगा तो खाउंगा क्या .....?और आप के दादा जी

कहने पे मैं यहाँ आ कर बेचता हूँ ....और फिर इनके काका तो खाते है .....भगू की इशारा कर के कहा

.........मैंने गुस्से में कहा .....तुम बकरी को नहीं मारोगे ....समझे .....मैं दादी से कह के अपने घर में

काम दिला दूंगा ......

वह चुप रहा ......कुछ बोला नहीं .....मैंने कहा ....तू चुप क्यों है .....मैंने बन्दूक हटा ली .....

.......उ का है ....हम जात के कसाई हैं ना ....हमका कोई काम नहीं देगा .....आप कहें तो ....?

फिर वह चुप हो गया ......बोल ना ...बाजार से दूर ......पक्के पुल के नीचे ...कर ले .....

रात को दादा जी ने मुझे डांटा......यही सब करने आते हो .....बन्दूक दिखा के सब को डराते हो

.....मैं चुप रहा ........

............आज हमारे गाँव में बहुत बड़ी बजार लगती है .....उसी में उस कसाई की दूकान है ....हमारी जमीन में .........

पिता जी ने बताया था , दादा जी ही उसे यह जगह दे कर गये थे , उन्हें मटन खाने का

बहुत शौक था और वह भी , उस बकरे का मटन लेते थे ,जिसको अच्छा अच्छा खिला के पाला

होता है

......आज भी मेरा भय बरकरार है ....किसी बकरी का क़त्ल होना ........जो मैंने देखा था


Thursday, April 1, 2010

सत्तू

........अब मेरी , ख़ास इज्जत होने लगी ,ज़ेबा जी के स्टाफ में

करीब दस रोज हो चुका था ,उनके साथ काम करते हुए । मैं जानता

था ,मुझ पे इतना सब खर्च जो हो रहा है ....उसके पीछे कुछ न कुछ ,

कोई बात जरुर है ,हीरो खान के साथ एक फिल्म थी जो पूरी हो गयी है

.....उस दिन ,जब मुझे पता चला की अब हीरो खान के साथ कोई फिल्म

नहीं है । तब मैंने ज़ेबा जी से कहा ....मेडमजी अब आप खान के साथ कोई

फिल्म मत साइन करें ........यह सुनते ही वह बोल पड़ी ....पर तुम्हारा काम

अभी ख़तम नहीं हुआ ....जो कुछ भी खान भाई जान ने, तुमसे कहा है .....वह तो तुम्हे

करना ही होगा ......! यह सुन कर ...मुझे समझ आ गया , कितनी नफरत करती हैं

हीरो खान से .....

इसी बीच बिरजू ...ज़ेबा जी को कह के गावं चला गया .....मैं बिलकुल अकेला रह गया

इस मुम्बई शहर में ....दिन यूँ कटने लगा ....जैसे बेवजह जिए जा रहा हूँ .....भाग भी नहीं

सकता था ....इनके चक्रव्यूह में यूँ फंस गया ....की अब मौत ही अपना आखरी इलाज लगने लगा

.........एक रोज ज़ेबा जी कर्जत में शूटिंग कर रही थी ,मैं भी साथ था ....और रात को ठहरने के लिए

खंडाला के एक बंगले में इंतजाम था ......पर उस बंगले में हम लोगों को रुकने की इज्जाजत नहीं

थी .....आज पहला दिन था शूटिंग का .......फिल्म नई थी, हीरो नया उभरता हुआ था ...

शूटिंग पे मेरा काम सिर्फ यह होता ....मैं साए की तरह ज़ेबा जी के साथ रहूँ ......बस एक रखवाले

की तरह .....जैसे गाँव में लोग अपनी आम की बगिया रखाने के लिए रखवाला रख लेते हैं

कोई एक आम न तोड़ने पाए ....बस मेरा भी वही हाल था ...

हथियार के नाम पे ....मुझे ज़ेबा जी ने एक पिस्तौल दे रखी थी ...उसे कब और किस पर

चलाना होगा ,वह भी वही बतायेंगी .....अब तो बड़े -बड़े निर्माता मुझे भी सलाम करते ...निर्देशक

ज़ेबा जी के बारे में .....कोई डेट चाहिए उसके बारे में मुझसे बात करता ....

दिन पर दिन मैं जेवा जी के करीब इतना आगया की उनके साथ बैठ कर खाना भी खाता ...


खान का बदला धीरे - धीरे धूमिल होने लगा ....अब तो उसका जिक्र भी नहीं होता ...जैसे भूल सी

गयी हों ......मुझे लोग शक की निगाह से देखने लगे ....मैं हूँ कौन ....?

उस रात ज़ेबा जी जब खंडाला के बंगले में अकेले रुकी थी ......मुझसे कहा था ...मैं बंगले

के बाहर रात भर मेरी ड्यूटी करूं .....किसी वक्त भी वह मुझे अंदर बुला सकती हैं,खतरा होने पे

उस रात , मैं बंगले से कुछ दुरी पे एक मंदिर के चबूतरे पे बैठा रहा ......हनुमान जी

का छोटा सा मंदिर था ..... माँ ने बचपन में हनुमान चालिसा याद करा दिया था..........

बस वही पढ़ता रहा ....उस रात मैंने कुछ खाया भी नहीं था .....भूख तो डर के मारे भाग

गयी थी । करीब रात के तीन बजे , ज़ेबा जी का फोन आया .....बंगले के पिछवाड़े आवो

मैं अँधेरे में रास्ता खोजता हुआ ......बंगले के पीछे के हिस्से में पहुंचा ....ज़ेबा जी ने एक दरवाजा खोला

और मुझे अंदर चलने को कहा ........बंगले में सभी लोग सो चुके थे ......मुझे एक कमरे में ले कर गयी

....मुझे डर लगने लगा ....यह मुझसे क्या चाहती हैं ?....बिस्तर खाली था .....मुझे बैठने को कहा

उन्होंने इत्मीनान की साँस ली ....मेरी तरफ देखा ...और कहने लगी ......जो काम तुम्हारा था

वह मैंने कर दिया है ,बिस्तर के नीचे एक सूटकेश है ....इसे तुम्हे ले कर जाना होगा ...

और ठीकाने लगाना होगा .....इसमें एक लाश है .......और लाश है ...मेरे भाई जान की ...हीरो खान की

नहीं ...मुझे बहुत दिनों से ठग रहे थे ....

मैं हीरो खान से प्यार करती हूँ .....और मुझे डर था ....कहीं तुम मेरे प्यारको मार ना डालो ।

आज तक जीतनी घटनाएं हुई हैं .......वह सब डान की ही पैदा की हुई थी .....अब इस सूटकेश

को ले और कहीं दूर फेंक कर आ जाओ .........

मैंने सूटकेश लिया ......और बंगले से बाहर आया ...... सर पे रख के चल दिया......कहाँ जाऊं ?

मैं इतना डरा हुआ था ......क्या करूं इस सूटकेश का ,पकड़ा गया ......तो जिन्दगी भर

की कैद भोगनी पड़ेगी ......मैं जब रेलवे लाइन पार कर रहा था .......तभी एक माल गाडी मेरे

सामने से गुजरी .....और कुछ दूरी पे जा कर रुक गयी ......गाडी इतनी लम्बी थी .....अब पार कैसे जाऊं

.......यही सब सोचता रहा ......सूटकेश को जमीन पे रख दिया था ......गाड़ी खडी रही ....

और मैं भी इसी इन्तजार में , गाडी जाये तो मैं भी पार जाऊं .......पुरी गाडी में कोयला भरा हुआ था

मेरे मन में एक बात आयी , क्यों ना मै इस सूटकेश को ....इस माल गाडी पे डाल दूँ .....पर इतना

भारी था सूटकेश, की मैं उसे अकेले माल गाडी पे डाल नहीं सकता था ......फिर भी हिम्मत की ...

और हनुमान जी का नाम लिया .....और फेंक दिया .....और खुद भी गाडी पे चढ़ के ...सूटकेश को

ठीक से रख दिया ......फिर ट्रेन धीरे - धीरे रेंगने लगी .......मैं ट्रेन पे बैठा ही रहा ......सोचा छोड़

दो इस शहर को .......कुछ नहीं है इस मुम्बई में ......दुखों का पिटारा है ....कौन किसको कैसे ठग

रहा है ... किसी को नहीं मालूम ......रात भर जगा हुआ था .....उन्हीं कोयलों के ढेर पे कब नीद

लग गयी पता ही नहीं चला ......

और कब तक सोया रहा ......जब आँख खुली तो मै ...कोयलों पे अकेला लेटा हुआ था ...

लगता है कोई चोर चुरा ले गया उस सूटकेश को ......अच्छा ही हुआ ....मेरे गले का बवाल गया

.............आज मैं साठ साल का हो गया ......अपने गाँव में हूँ ......फिल्म की हर किताब ,

पेपर पढ़ता हूँ ......जिसमें ज़ेबा जी के बारे में लिखा होता है ....थोड़ी सी खेती है ...उसी पे जीवित हूँ

पर बहुत खुश हूँ ......बिरजू अब नहीं रहा ......उसके बच्चे हैं ....उनका भी मैं ही ख्याल रखता हूँ

शादी नहीं की .......मुझे ज़ेबा जैसी कोई नहीं मिली ......और अंदर एक डर आज तक बैठा है

मैं भी भाई जान के खून में शामिल था ........?





Tuesday, March 30, 2010

सत्तू

......मैं और बिरजू , ज़ेबा जी के बंगले के पास ही पहुंचे थे ,
तभी ज़ेबा जी अपनी कार से बाहर निकली शूटिंग पे जाने
के लिए ....उनकी कार हमारे सामने से गुजरी .....और हम से
कुछ दूरी पे जा कर रुक गयी ।
मैं घबरा गया ,बिरजू भी डर गया ,हम दोनों तेजी से
आगे बढ़ गये ....तभी पीछे से किसी के बुलाने की आवाज आयी
.....हम दोनों डर के रुक गये । हमारे पास ,मोहन ड्राइवर ज़ेबा जी
का भागता हुआ आया ,और कहने लगा .......भाई राजेश जी आप को
मेडम बुलाती है .....

मैं डरा हुआ .....ज़ेबा जी कार के पास पहुंचा ....मेरी कुछ समझ में नहीं
आ रहा था ...क्यों बुलाया है मुझको ...? अब तो इनसे बहुत डर भी लगने लगा
है ,जब से यह जाना की ये डान की बहन हैं ....
कार की खिडकी खुली , ज़ेबा जी ने बाहर झांक कर मुझसे कहा , कार में
बैठो ......मैं डर के मारे खड़ा ही रहा ,फिर गुस्से में कहा ...... सुनाई नहीं देता .....!
मैं डर के ..कार मैं बैठ गया ,मेरे साथ बिरजू भी बैठने लगा ,यह देख कर ज़ेबा जी
बोल पड़ी ........तुम बिरजू , यहीं बंगले में बैठो ....इसको मैं शूटिंग पे ले जा रही हूँ
......शाम तक आ जाएगा ...इतना कह कर , मुझे उड़ा कर अपने साथ ले कर गयी

गाड़ी में मुझसे कुछ भी बात नहीं की ........कार महबूब स्टूडियो पहुंची ....
कार रुकी मैं जल्दी से कार से बाहर निकला ....पास खड़ी वैन में ज़ेबा जी गयी
उनके और स्टाफ के लोग भी वैन में गये ....मुझसे कोई भी बात नहीं कर रहा था

दस मिनट तक मैं ...वैन से बाहर ही खड़ा रहा .........मुझे क्यों लाया गया ?
मेरी समझ ...कुछ नहीं आ रहा था । क्या करूं यहाँ खड़ा हो कर ...बहुत मुश्किल
में जिन्दगी हो गयी ...

तभी वैन से ज़ेबा जी का स्टाफ बाहर आया और मुझे अंदर जाने को कहा ...
...मैं धीरे -धीरे डरा हुआ ,वैन में पहुंचा .....ज़ेबा जी बहुत बड़े आईने के सामने बैठी
थी ....मुझे देख कर बैठने को कहा , मैं पास रखी कुर्सी पे बैठ गया .....शीशे में से मुझे
देख कर पूछा ,कैसे हो राजेश ? सुना ऑटो ...और उस दिन ...जब तुम मेरी ........
कार से टकराए थे ...तुमने मुझे देखा था न ....?फिर ..फिर पुलिस को झूठ क्यों कहा ?
.........मैं सोच में .... पड़ गया , ....क्या कहूँ इनसे ....और यह सच भी ...मैंने
उस दिन जान बूझ कर इनका नाम नहीं लिया था ...
.......बोलो .....झूठ मत बोलना ...फिर से ज़ेबा जी ने कहा .......
...मेरे पास अब सच बोलने के अलावा कोई जवाब नहीं था .....जी मैंने ...पुलिस को झूठ बोला
था ,जान बूझ के ..... ।
...वजह क्या थी ...मुझे क्यों बचाना चाहते थे .....?
....बस ...आप का नमक खाया था .......!
..यह सुन कर जोरों से हंस पड़ी .......सीख गये बोलना ...अच्छी बात है ...

खान को क्या सजा दोगे .....? ...बोलो .....!
......यही तो मैं और बिरजू चार दिन से सोच रहें हैं ......? कुछ समझ नहीं आ रहा है
....भाई जान ने जो कहा था .......वह भी रास्ता बुरा तो नहीं .....?.काम करो ....भाई जान बचा लेंगे
.......जानते हो .....तुम्हारे जाने के बाद .....दो बार खान ने ........मुझ से जबर्दस्ती करनी चाही
और उस दिन ...जब तुमको मैंने उड़ाया था ....उस दिन भी ...खान ने .......उस दिन तुम पर
बहुत गुस्सा आया ......पर क्या करती ....अब बताओ .......मुझे क्या करना चाहिए ?...है कोई जवाब ?

ज़ेबा की बातें सुन कर ....मुझे लगा .....खान की सजा मौत ही है ...
...ज़ेबा जी ने ...कहा क्या सोचने लगे .....एक बार कुछ रोज पहले ...किसी को सुपारी दी थी ....पर येन
वक्त पे उसकी पिस्तौल चोरी हो गयी .....उसके आदमी फिल्म सिटी तक आये थे ....जहां पिस्तौल रखी
थी ....कोई उठा ले गया .....उस दिन खान मेरे साथ शूटिंग कर रहा था .......उन लोगों का कहना है ,कोई
ऑटो चलाने वाला ले गया ......कौन है ? उसकी तलाश जारी है ....
एक रास्ता बताऊं .....मेरे साथ काम करो ....और मेरे पास पिस्तौल भी है ....फिर किसी दिन
मौक़ा देख कर ....खान को शिकार बना लेना .....और तुम्हे बचाने के लिए मेरा सारा स्टाफ होगा
....क्यों रास्ता कैसा है .....वैसे मैं और भी रास्ते अपना सकती हूँ ......
मैं उसको सजा ...इस तरह देना चाहती हूँ .....जिससे कोई भी आदमी किसी लड़की को
जबरदस्ती अपनी हवस का शिकार ना बना सके ....
मुझे जेबा जी की बात जम गयी .....और मैंने हाँ कह दिया .....

Monday, March 29, 2010

सत्तू

..................हम दोनों डान की कैद से जरुर निकल आये ....

अब ...क्या , क्या मैं ,जो वादा डान से कर के आया हूँ ,

उसे पूरा कर पाउँगा ? इसी सोच में दो दिन गुज़र गया ....

.....मैं अपनी झोपड़ी से निकला ही नहीं .....बिरजू ,मेरा दोस्त

इतना डरा हुआ था ,बस एक ही रट , हमें गाँव भाग जाना चाहिए

.......पर मुझे मालूम है , वह इंसान जिससे वादा कर के आयें हैं

वह हमें ज़िंदा नहीं छोड़ेगा ....

हम हीरो खान को क्या सजा दे सकते हैं जो मौत से बत्तर हो ,

यह सब मैं झूठ ही बोल के आया था ......भलाई इसी में थी की मैं , ज़ेबा जी

से एक बार मिल के ,अपनी इस झूठी हरकत से निजात पा सकूँ ....

बिरजू को अपने मन की बात बताई ....और उससे कहा ,पहली बार

भी तुमने मुझे ज़ेबा जी के यहाँ काम लगवाया था ....इस बार भी तुम फिर लेकर

चलो ....और मेरी झूठी हरकत .......जो मैं डान के सामने कर के आया हूँ ...

उन्हें सच्चाई से अवगत कराओ......


वह चुप ही रहा ...कुछ बोला ही नहीं । मैंने फिर से कहा ...चुप रहने से कुछ भी

नहीं होगा ...इस बार उसने सिर्फ मेरी तरफ देखा .....लेकिन कुछ बोला नहीं ...

" देख बिरजू ...एक बार तू मुझे ,ज़ेबा जी से मिला दे ......मैं उनको समझा लूंगा

और हम ...इस जंजाल से पार हो जायेंगे ....इस बार बिरजू बोला ठीक है ....मैं बंगले के

अंदर तक पहुंचा दूंगा ,, आगे का काम तुम्हारा ....ठीक है ...मैंने कहा ....

सुबह का इंतजार ...होने लगा , कुछ सोच के मैं माँ काली के मंदिर गया

माँ की भव्य की मूर्ती इतनी डरावनी थी .....एकटक एक मिनट से ज्यादा नहीं देख सका

वहीं बैठ गया ....और मन ही मन कहने लगा माँ ....इस मुसीबत से पार करा दो ...यही

प्रार्थना करता रहा .....मंदिर बंद होने का वक्त हो गया ....एक पुजारी मेरे पास आया ,और

मुझे जाने को कहने लगा ....मैं चुप चाप मंदिर से बाहर निकल आया ...

पास एक जूस की दूकान थी ....भूख लगी थी ...जेब में हाथ डाला ...कई नोट हाथ में

आ गये ....ख्याल आया यह तो डान के दिए हुए पैसे है ....कुल बीस हजार दिया था ....यह धन

भी हमारे लिए भय का कारण है ।

जूस पी कर मैं घर की तरफ चल दिया ......


घर जब पहुंचा तो , बिरजू कहने लगा हमें यह जगह छोडनी है ,

क्यों ......मैंने पूछा ।

डान का हुक्म है ...हमें एक घर दिया गया ...अभी ही चलना होगा ...मैं तुम्हारा ही

इंतजार कर रहा था ....और हमें वहीं रहना होगा आज के बाद ....मैं कुछ बोला नहीं

और चल दिया बिरजू के साथ ......सडक से एक ऑटो किया ....और बिरजू ही ने कहा

यारी रोड चलो ....


ऑटो उसी बिल्डिंग के सामने जा कर खड़ा हुआ...जहाँ से बार बाला आती थी ...

मैं कुछ समझा नहीं .....बिरजू के पीछे पीछे चल दिया .... पहले हमें चौकीदार ने रोक लिया

और बिरजू ने उससे कुछ कहा ,फिर उसने हमे जाने दिया ...लिफ्ट से हम लोग सोलवहीं मंजिल

पे पहुंचे .....बिरजू के पास चाभी थी .....घर खोला .....हम अंदर पहुंचे ........ ,।


घर यह मुझे पहचाना सा लगा ......जैसे मैं यहाँ पहले आ चुका हूँ ......एक बार ख्याल

आया बिरजू से कहूँ .....कुछ सोच के मैं चुप ही रहा ...घर में सब कुछ था एक बेड रूम था ,किचेन

में सब कुछ था ...ऐसा लगा जैसे ....एक गेस्ट हॉउस है ......तभी एक लडका आया ,जिसे मैंने पहले

देखा था इसी घर में .....वह मुझे देख कर थोड़ा सा डर गया ....हम लोग वहीं हाल में बैठ गये...


वह लडका हमारे पास आया ....आप लोगो का इन्तजार बहुत देर से कर रहा था

खाना बन चुका है ,कहें तो लगा दूँ .....बिरजू बोल पड़ा ...हाँ लगा दो .....डायनिंग टेबल पे हम लोग

बैठ कर खाना खाने लगे ....खाना खाते हुए बार बार यही ख्याल आ रहा था ...हम लोग जा कहाँ रहें हैं

एक डर बैठ गया .....हम दोनों एक बकरे की तरह हैं जो काटने से पहले खूब खिला पिला के

तैयार किया जा रहा है ....अभी तक कुछ, सब कुछ झूठ सा लग रहा था .......अब सब बिलकुल सच

लगने लगा ......खाने में क्या नहीं था ....खाया तो सब कुछ ...पर जान नहीं पड़ा क्या क्या खाया

....बिरजू के चेहरे पे अब डर नहीं था ...हम दोनों एक ही बेड पे सोये ....मेरी आँखों में नीद नहीं थी

रात में कब सो गया ......पता ही नहीं चला .....


सुबह जब आँख खुली ....बिरजू बगल में नहीं था ...मैं डर गया ...कहीं यह मुझे छोड़ के भाग तो

नहीं गया । जब मैं हाल में आया , तो देखा बिरजू चाय पी रहा है .... मेरा डर दूर हुआ ...बिरजू ही कहने

लगा ....नौ बज रहा है , चलना नहीं है ज़ेबा जी के यहाँ ....? .....हाँ हाँ ...चलना तो है ,

.......तो फिर तैयार हो जा .....नहीं तो वह शूटिंग के लिए निकल जाएँगी ...........

Thursday, March 25, 2010

सत्तू

.....दोपहर को ,बिरजू मेरे लिए खाना ले कर आया ,मेरा डरा हुआ चेहरा देख कर ,

उसने पूछा .......क्या बात है ?....चेहरा तेरा इतना मुरझाया हुआ क्यों है ?यह डान,


मुझे कातिल बनाना चाहता है ....उस हीरो खान से मेरी क्या दुश्मनी है ? बता तू,बोल

...बोल ना चुप क्यों है ? बिरजू मेरी तरफ एक -टक देखता रहा .....,देख ...यह डान हमें

उस जुर्म में फसाना चाहता है ,जो हम करना नहीं चाहते हैं .........,और अगर एक बार

गुनाह कर दिया .....फिर हम उस दलदल में फंस जायेंगे ,जिसमें से फिर निकलना नामुमकिन

हो जाएगा .....

बिरजू ने कहा , देख राजेश ......यहाँ से निकलना है तो , हमें वही करना होगा ,

जो यह कह रहा है ....वरना यह हमें मार देगा , तू यह खाना खा ....मैं सोचता हूँ , कोई रास्ता

मिलता है , या नहीं .......

बिरजू खाना रख के चला गया ......खाना खाने का मन नहीं कर रहा था ......बस यहाँ

से भाग निकलने का रास्ता खोज रहा था .....यही सब सोच रहा था ,तभी खिडकी से देखा ......

एक कार अंदर आ रही थी ....इस कार को देख कर ,मैं पहचान गया ....यह तो ज़ेबा जी कार है !

......लेकिन .......यहाँ ..क्यों ... ? कहीं इन्होने ...तो नहीं ...खान को मरवाने के लिए ....यह सब

खेल किया हो .....और मैं ...जो नराज हो कर इन्हें छोड़ आया .....मुझसे बदला तो नहीं .....ले रहीं

है ........,

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था ,मैं तो इस कमरे में कैद था ,बाहर निकलने की इजाजत

नहीं है ....जेबा का और डान से कोई रिश्ता तो नहीं है ? ...मैं अपने आप से ,बहुत सारे सवाल कर

रहा था । पर जवाब न था, मेरे पास ,बिरजू मेरे पास आया और कहने लगा ....राजेश तुम्हे

नीचे बुलाया गया है ....मैं फिर डर गया ....कुछ सोच के बिरजू के साथ नीचे चल दिया ....

नीचे हाल में .....डान बैठा हुआ था ....पास रखे हुक्के को पी रहा था ...डान को देख के

डान कम अवध का बादशाह लग रहा था ....मैं उसके पास पहुँच के, मैंने उसे सलाम किया

....सलाम का जवाब न देकर ,सिर्फ बैठने को कहा । ......मैं डरते हुए पास रखे सोफे पे बैठ गया ,

...कुछ देर बाद ,जेबा जी आयीं ...और डान ने जेबा जी को बहन कह के बुलाया ....वह डान के

बगल बैठ गयी ....जेबा जी ने मेरी तरफ देखा ...बस मुस्करा दिया ......राजेश ,खान को नहीं मालूम

जेबा मेरी बहन है .....और उसको इस बात सजा मिलेगी .....मैंने भी समझाया ....पर वह समझना

नहीं चाहता ....तुम्हे इस लिए चुना गया .......यह जेबा की इच्छा थी ....यह काम तुम करो ....

....तुम बोलते कुछ नहीं हो .....हमें धोखा तो नहीं दोगे ....?.और हमारे धर्म में धोखा देने वाले को क्या

सजा मिलती है , मालूम है क्या ? ....मैंने डरते हुए डान की तरफ देखा ..... ।

....... मेरी जबान ,तलवे से जा लगी थी ......हकलाते हुए कहना शुरू किया ....हीरो खान

को ..मौत की सजा देना ही क्या वाजिब है ..?.किसी और ढंग से ,क्या नहीं समझाया जा सकता ...

यह सुन कर ....डान ने खुश हो कर कहा .....बिल्कुल...क्यों नहीं .......फिर डान ने ज़ेबा की तरफ

देखा और ....पूछा क्या कहती हो ज़ेबा ? भाई जान ,जैसा आप ठीक समझते हैं !...वैसे मैं तो

इतना तंग आ चुकी हूँ की ......उसका मरना ही जरुरी है .....

इतनी नफरत ....ज़ेबा जी का .. ......खान के लिए ......इतना गंदा इंसान है वो ....

मुझमे जैसे कहीं से .... हिम्मत आ गयी ....और बोल पड़ा मैं .....नहीं, इसकी सजा मौत से बत्तर होनी

चाहिए ...और वह मैंने सोच लिया है ,वह मुझ पर छोड़ दीजिये ....किस तरह दूंगा ...पर यहाँ रह कर

नहीं ....मैं अपनी कपास बाडी में रह कर दूंगा .........

डान बोल पड़ा .....हमसे दगा मत करना .... वरना मौत की सजा .....तुम्हें मिलेगी

.....साहब जी मुझे मंजूर है .....

....ठीक है ...तुम जा सकते हो ....अपने घर .....जावो तुम आजाद हो ....और कुछ सोच के ...डान ने दो

गड्डी सौ -सौ का मेरी तरफ .बढाया ...यह रख लो काम आयेगा ....और हाँ ..कल से सब काम शुरू कर

दो .......

मैं और बिरजू , कपास बाडी की अपनी झोपड़ी में आ गये ....हम दोनों इस तरह सोये ,


जैसे लोग गदहे......बेच कर सोते हैं ....पूरा दिन सोते रहे ...पूरी रात सोते रहे ....

जब अगले दिन आँख खुली ......डान के सामने ,एक वादा कर के आ गये हैं ......अब उस सजा को

खोजने लगे जो .....हीरो खान को देनी थी ........ ।

Wednesday, March 24, 2010

सत्तू

....गाडी , बहुत बड़ी थी ....एक ड्राईवर ,सफ़ेद कपड़ों में था । जो उस गाडी को चला रहा था।


कहाँ ले कर मुझे जा रहा है ? मुझे नहीं मालूम ....पर डर था , मुझसे क्या कराना चाहते हैं ?

गाड़ी चली जा रही थी ,मैं अपने विचारों में खोया ...एक -एक पलडर से गुज़र रहा था ।

करीब डेढ़ बजे ,यह कार, एक बंगले के अंदर गयी ,बहुत ही खूबसूरत बँगला ,कई वाचमैन ,बड़े -बड़े

कुत्तों के साथ ,टहल रहे थे । मुझे अंदर चलने को कहा गया , मैं एक खूबसूरत से हाल में पहुंचा ,

मैं डरा हुआ ,इधर -उधर देखता रहा ......तभी एक अधेड़ किस्म का आदमी लखनवी अंदाज़

में ,चिकेन के कपडे पहने हुए ,मेरे पास आया ,उसके रोबीले चेहरे में किसी खूंखार राजा का खौफ

भरा था ..... ।

पूछा उसने ..........राजेश ....यही नाम है तुम्हारा ,मैंने डर के उनकी तरफ देखा ......अब

इसी जगह रहना होगा .....समझे .......अभी तक मैं तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था ,तभी उस आदमी

ने आवाज दे कर किसी को बुलाया .........मैं बिरजू को ,एक नौकर के रूप में देख के डर गया

........देखो तुम्हारे दोस्त को भी बुला लिया .....ठीक है ना ,क्यों राजेश ? और एक बात ,यहाँ से भागने की कोशिश मत करना ........इतना कहा के ,बिरजू को अपने पास बुलाया ......और कहा .....

राजेस को ऊपर का कमरा दे दो रहने के लिए ....और हाँ किसी बात की तकलीफ न होने देना इसको

.......और इतना कह के वह आदमी चला गया ।

हम दोनों दोस्त एक दुसरे को देखते रहे .....

जिन्दगी के किस खेल में फंस गये , बिरजू मुझसे कुछ नहीं बोला ,और चलने को कहा ।

मैं उसके साथ चलने लगा ,मैं बिरजू से बात करने लगे .....वह सिर्फ हूँ हाँ में जवाब देने लगा ...एक

दोस्त से मिलने की खुशी नहीं थी .....उसे ...... ।

मुझे एक बहुत ही खूबसूरत कमरे में ले कर गया ......और कहने लगा ......यह आप का

कमरा है ,आज से आप इसी में रहें गे ......और दूसरी बात मैं आप का दोस्त नहीं हूँ ...मैं सिर्फ एक

नौकर हूँ आप का ....मुझे ठीक ठाक देखना चाहते हैं तो दोस्ती का रिश्ता भूल जाओ ....इसी में

हमारी भलाई है .... ... ।

बिरजू मुझे कमरे में छोड़ कर चला गया .....मेरी कुछ समझ में नहीं आरहा था ॥

यह सब क्या हो रहा है । कौन यह सब कर रहा है और क्यों ? एक बहुत बड़े बिस्तर पे बैठ गया

इस तरह के बिस्तर पे मैं आज तक बैठा नहीं था ,आज सोना पड़ेगा ....

सुबह हो गयी ...पर एक पल को नहीं सोया ....किन -किन ख्यालों में खोया रहा

रात भर ...मुझे हलाल होने वाले बकरे का ख्याल आता था ......खूब खिलाया जाता है

बच्चे इतना प्यार करते ....जैसे जिन्दगी भर का साथी मिल गया हो ....

दरवाजे पे नाक हुआ ,मैंने उठ कर दरवाज़े को खोला ........सामने बिरजू खड़ा था

उसके हाथ में चाय की एक पुरी ट्रे थी ,जैसा मैं फिल्मों में देखा था, किसी अमीर आदमी को चाय

पीते ...वैसे ही बिरजू चाय को ले कर आया था ......मैंने पूछा ,बिरजू यह सब क्या नौटंकी है ?

.......बिरजू चुप ही रहा ....उसने मुझे चाय बना कर दिया । फिर मैंने पूछा ...बिरजू तू मेरी

किसी बात का जवाब क्यों नहीं दे रहा है? ....साहब मैं नौकर हूँ, और आप डान साहब के मेहमान

.......मुझे ....एक दोस्त की खातिर ...माफ़ करें ,जैसा आप चाहते हैं ,वैसा कुछ नहीं हो सकता

और मुझे वह सब करने दे, जो मैं कर रहा हूँ .......! यह सुन कर , मैं चुप हो गया .....अब क्या

...जानू ....बिरजू कुछ बताना ही नहीं चाहता ......

......इस बंगले में रहते हुए .....करीब तीन बीत चुका था ...मैं बिरजू के अलावा किसी से

बात भी नहीं कर सकता था ....सच कहता हूँ ,मैं इस जिन्दगी से ऊब चुका था ...मुझसे यह लोग क्या

चाहते हैं ,यही मेरी समझ में नहीं आ रहा था ......बिरजू भी मेरी कुछ हेल्प नहीं कर पा रहा था

.....वह भी इन लोगों के चंगुल में फंसा हुआ था ,एक रात मेरे कमरे में डान आया

और कहने लगा ....कैसा लग रहा है ? किसी तरह की तकलीफ तो नहीं है ?

......मेरा जवाब क्या होता .....डर के मारे ,सब ठीक ही बताया ,उस आदमी ने कहा तुम्हे एक

आदमी को मरना होगा .....आज तुम्हें सब कुछ बता दिया जाएगा ....किसे मारना होगा और कैसे

मारना होगा ....हथियार क्या होगा ? समय क्या होगा ,सब कुछ बता दिया जाएगा ......

मैं शाम का इन्तजार करने लगा ......एक आदमी आया ,उसने एक आदमी की फोटो दिखाया

यह फोटो किसी और की नहीं .......हीरो खान की फोटो थी ....फिर उस अजनबी आदमी ने कहा

अगले सोमवार को वह फिल्म सिटी में मंदिर के लोकेशन पे शूटिंग करेगा ...... फाईट सीन की शूटिंग

है ......और तुम्हे इसी मौके का फायदा उठाना होगा ..... गोली से उड़ा देना होगा ...

......यह काम करने के बाद वहीं पे एक वैन खडी होगी ,बस उसमें जा कर बैठ जाना होगा

....... इस काम के बाद ...तुम और बिरजू अपने गाँव जा सकते हो ..........एक साल बाद

फिर तुम्हे मुम्बई आना होगा .....इस काम का तुम्हे दस लाख मिलेगा ....कम तो नहीं है


यह सब सुन कर मेरी सिट्टी - पिट्टी गुम हो गयी .........



Monday, March 22, 2010

सत्तू

पुलिस ,पूछ पाछ के चली गयी ,मैं पुलिस के व्योहार से मैं डर गया

इसी सोच में पड़ा रहा ,क्या सच में किसी चंगुल में फंस रहा हूँ ?

मुझे यहाँ से भागने में समझदारी लगी ,सब कुछ था तो ,पैसा टिकट ,

फिर एक ख्याल आया ,मेरे जाने से ,पुलिस का शक पक्का न हो जाय ।

की मैं ही गुनाहगार हूँ .......यही सब सोच कर मैंने जाने ईरादा कैंसिल किया

रात हो गयी ,बिरजू भी आ गया था ,मैंने उससे कहा ,मेरा मन यहाँ

लग नहीं रहा है ......यह सुन कर ,बिरजू बोला ... गाँव जाने का मन हो रहा है ?

........मैंने सर हिला कर जवाब दिया ......फिर कहने लगा ....अभी कैसे जा सकते हो !

पुलिस ...से पूछ कर जाना पड़ेगा ,वरना उनका शक पक्का हो जाएगा ,और मैं भी

तुम्हारे साथ लपेटे में आ जाउंगा ....तो मैं क्या करूं .....कुछ दिन इन्तजार करो ,बिरजू ने

कहा .......

मुम्बई आये थे काम की तलाश में ......और किस जंजाल में फंस गये ,पूरी रात

इसी विचार में गुजर गयी ......सुबह आँख खुली तो बंगाली औरत चाय ले कर खड़ी थी ,अब मैं

हर किसी से डर लगने लगा .....कमरे में बिरजू भी नहीं था ,बंगाली औरत मेरे डर को भांप गयी

.......मुझे चाय देते हुए .....पूछा उसने ....इतना डरा हुआ क्यों है तू ?

......मैंने डरते हुए कहा ...मुझे यहाँ से भेज दो ......गाँव जावो गे ....?

.....मैंने डरते हुए ...हाँ कहा ...

....क्या हो गया ... बोलो ...डरो मत ..मैं कोई रास्ता निकालूंगी ।

.....मुझ में हिम्मत आयी ...मैंने सब कुछ सच -सच बता दिया ... । यह सब सुन कर ,वह औरत

सोचने लगी ......फिर कुछ सोच के बोली ....कोई तुम्हे अपने गैंग में शामिल करना चाहता है ।

....अब तो एक ही रास्ता है ....तुम दोनों को मुम्बई छोड़ के जाना होगा ,वरना तुमको किसी बुरी लाईन

में फंसना पड़ेगा ,और वही करना पड़ेगा जो वह लोग चाहेंगे ....

मैंने पूछा .....पर यह लोग कौन हैं ?

इसका जवाब भी उस बंगाली औरत के पास नहीं था ......

कुछ देर तक वह सोचती रही ....और एक झटके में उठी ....चली गयी । मैं भी कुछ ,समझ नहीं पाया

...फिर मैं कमरे में अकेला रह गया ...तभी एक लडका गली का आया ,और मुझे एक मोबाईल दे कर

चला गया ...मैं कुछ पूछता ....तब तक वह भाग गया .....

मोबाईल देख ही रहा था ....तभी उसकी घंटी बज उठी .....मैं कुछ समझ ही नहीं पाया ...फोन मिलते

ही घंटी बज उठी ,.....फिल्मों की तरह सब हो रहा था ,और मेरे चेहरे का रंग भी उसी तरह बदलने

लगा .... डर के फोन को उठाया .....हेलो बोला था की उधर से ,किसी औरत ने मेरा नाम ले कर ,कहा

.....कैसी तवियत है राजेश ?.....मैं कुछ बोलूँ....इससे पहले वह फिर से बोल पड़ी ,राजेश मैं तुम्हारे

एहसानों को भूल नहीं सकती .....मैंने तुम्हारे लिए एक घर खरीदा है ....उसमें तुम आ कर रह सकते

हो ...आज रात में तुम्हारे पास एक गाड़ी आएगी ,तुम्हे लेने के लिए ....आ जाना वरना जबर्दस्ती

उठवा लुंगी ..... यह सब सुन कर मैं डर गया .....सच में मैं किसी गैंग में फंस गया । अब निकलना

मुश्किल ही है । अब जैसा वह लो कह रहें हैं ,मान लो .....यह सब कुछ मैंने अपने मन से कहा ,नहीं तो

....और किसी बवाल में फंस सकता हूँ ....

पूरा दिन ...गुज़र गया भूख भी मर चुकी थी , मैं किस राह पे जा रहा हूँ ? मैं जीवन में क्या

करने जा रहा हूँ ...क्या मैं गुंडा बदमाश बनने जा रहा हूँ ?.......फिर एक सवाल मेरे मन में उभरने

लगा ....क्या गुंडे बदमाश इसी तरह लोगों को बनाया जाता है ?

वह बंगाली औरत भी मेरा हाल पूछने नहीं आयी ...... शायद वह भी डर गयी ।

बिरजू भी घर ...रात में नहीं आया ......कहाँ है वह ,क्यों अभी तक नहीं आया ?

...मेरी हालत वैसी ही थी ,जैसे किसी बकरे को हलाल करने के लिए ले जा रहें हो ,और वह बकरा

मैं हूँ ....बकरा तो जानवर होता है , मैं तो इंसान हूँ ....मैं भाग भी नहीं सकता ...बस चुप चाप ,देखते

जावो ,किस तरह तुम्हारे साथ पेश आते हैं ,और फिर मुझमें ऐसा क्या मिल गया उन्हें ?

मैंने भी जी को कड़ा कर लिया , एक कहावत मेरी माँ कहा करती थी, जब सर दिया ओखली में

तो मूसलों का क्या डर ,यही सोच लिया मैंने भी ....अब डरना क्या ,देखा जाएगा जो होगा ।

रात करीब एक बजे ,मेरे पास एक आदमी आया और मुझे चलने को कहने लगा .....मैंने उस आदमी

को ध्यान से देखा ...और अपना कुछ समान लिया ,सत्तू की पोटली भी ली ,और उस आदमी के साथ चल

दिया .......








Sunday, March 21, 2010

सत्तू

......मुझे ठीक होते - होते चार दिन लग गया ,बिरजू मेरा बहुत ख्याल रखता ।

मेरे खाने पीने का पूरा ध्यान रखता ,सुबह वह खाना बना कर , खुद खा कर

और मेरे लिए रख कर चला जाता । मैं अपनी तीन दिन की बेहोशी को अभी

तक समझ नहीं पा रहा हूँ । क्या मैं सच में बेहोश था , क्या मेरे साथ कोई खेल

हो रहा है .... ?

वैसे इस शहर से ,अब तो डर लगने लगा ...पैसा तो है ...इंसानियत भी है

पर एक मशीन की तरह जिन्दगी है .....मशीन की तरह जीना है तो .....यहाँ रह लो

......खाने को जरुर मिलेगा ....पर शौचालय नहीं मिलेगा ,सडक के फूटपाथ ,पर सुबह लोग

बैठे मिल जायेगें । सोने की जगह भी नहीं मिलती ....परिवार से दूर रहो .... ।

हर कोई किसी न किसी को फंसाना चाहता है .... कैसे फंसा रहा , आप को पता नहीं

चलेगा ,कुछ महीनो बाद आप जानेगें .....आप एक मकड़ी के जाल में फंस चुके हैं ,अब

निकलना मुश्किल है .....जैसे मुझे ज़ेबा जी फंसाना चाहती हैं ,बार बाला मुझे बंधुआ मजदूर बनाना

चाहती हैं .....बंगाली चाय बेचने वाली ....रिश्ते बना कर ,मुझे लूटना चाहती है ..... ।

मैं सब जानते हुए भी .... उसमें भी अच्छाई देख रहा हूँ ....यह मेरी मजबूरी है ...पैर

जमाने के लिए हम चुप रहते हैं ...अपने आप को हम ठगने देते हैं ...यही सब सोचते हुए ,मेरा

समय बीतता । अब फिर से नौकरी की तलाश होगी .....खाली एक दिन नहीं रह सकते ...किसी

पे भार बनना मेरी फितरत नहीं है .......

वह बंगाली चाय बेचने वाली औरत ,मेरी खोली में आयी ....मेरे लिए जूस ले कर.......

......और आते ही डांटने लगी ..... समझाने लगी ....रात को देख का चलाने की बात ...यह जूस पीओ

यह रिक्शा चलाने का धंदा - बंद करो ....कोई और काम खोजो ....न मिले तो मेरे को बताओ ...मैं

देखूं ....किधर - किधर चोट लगी है ?मैंने कमर की तरफ बताया ...वो बेझिजक हो कर देखने

लगी ...तुझे तो अंदर की चोट लगी है ....मेरे पास मालिश का तेल है ,शाम में मालिश कर दूंगी ...

सब ठीक हो जाएगा ...और अब रिक्शा मत चलाओ ? ......... यह जूश पी कर ख़तम कर ,

.....
यहकह कर वह चल दी ......मैं इसके बारे में सोचने लगा ....कमाल की औरत है ,इतना हक़ तो

मेरी माँ ने मुझ पे नहीं दिखाया अभी तक .....

मेरा मोबाईल भी खो चुका था .....माँ से बात करने मन कर रहा था ...बिरजू ने कहीं मेरे

इस एक्सिडेंट के बारे में बता न दिया हो ...वरना वह सुन कर मर जायेगी ...बिरजू से मुझे बात करनी

पड़ेगी ....यही सब सोच रहा था ,तभी मेरी झोपड़ी में भंडारी साहब ,जेबा जी के मैनेजर आये ।

उन्हें देख कर सकते में आ गया ....उन्होंने मुझे कुछ रूपये दिया ....और हवाई जहाज का

टिकट दिया .....कहा यह सब जेबा जी ने दिया है ....और कहा, कुछ दिन के लिए घर चले जाओ .....

फिर जब मन कहे तब आ जाना ,और जेबा जी के पास ही आ कर काम करना ....ऐसा उन्होंने कहा है ।

इतना कह कर वो चले गये .....मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था ,यह सब क्या है ?

मैं इतना खाश कैसे हो गया ?....जिसके लिए प्लेन का टिकट आ रहा है ....वैगर बात के पैसे दिए जा

रहें हैं ,कोई तो बात है ?........


मैं अपने से बात करता रहा ......कुछ देर बाद एक सादी ड्रेस में पुलिस का आदमी आया

मुझसे पूछने लगा .......क्या ..क्या पूछा जिसका जवाब मेरे पास नहीं था .....मुझे किसी गैंग से मेरा

नाम जोड़ दिया ...पिस्तौल की बात इन्हें कैसे मालूम हो गयी ...?मैं चुप रहा ,सब बातों से मैं अनभिज्ञ

रहा ....

Thursday, March 18, 2010

सत्तू

......बेला जी की बिल्डिंग के पास खड़े -खड़े ग्यारह बज गया ,लगा अब वह

नहीं आयेंगी .....या चली गयी होंगी ?कुछ देर बाद एक सवारी मिली उसको

फिल्म सिटी जाना था ....,एक पल को सोचा , ..क्या करूं ... जाऊं ....या ..मना

कर दूँ ......लेकिन ..यह कब तक ....... । तभी पैसेंजर बोल पड़ा ,....वो भाई..चलो गे

क्या सोच रहे हो ...डबल पैसा ले लेना ! ....कुछ सोच के कहा , बैठो साहब .....और मैं

रिक्शा ले कर चल दिया ।

फिल्म सिटी के अंदर चलने को कहा पैसेंजर ने ,मैं अंदर पहुंचा .....उस पैसेंजर

ने किसी से बात की ....फिर मुझसे कहने लगा .....हेली पैड चलो ....यह जगह पहाड़ी के बिलकुल

टाप पे है ....ऊपर पहुँचने पे पूरा मुम्बई दिखता है ....जैसे चारो तरफ दिवाली मनाई जा रही है

.....एक सेट जंगल का लगा था ....जिसमे एक पुरानी हबेली बनी है ...वहीं पे शूटिंग चल रही थी

पैसेंजर ने मुझे पैसे दिए ....उसने मीटर से डबल ही पैसा दिया ...फिर मुझसे कहा यहाँ थोड़ी देर

इन्तजार कर लो शायद कोई पैसेंजर मिल जाय ? ....कुछ सोच कर रिक्शा वहीं खड़ा कर के ....

शूटिंग देखने लगा ....यह शूटिंग वाले लोग भी बहुत कमाल के होते हैं ....जब तक शूटिंग चलती

कमाल का काम करते हैं ...जो साहब आये थे ,मेरे साथ, वह सहायक निर्देशक थे ...उनकी वजह से मुझे

चाय भी पीने को मिल गयी ....और वहीं यूनिट के साथ खड़ा हो कर शूटिंग देखने लगा .....


अभी कुछ ही देर हुई थी ,तभी एक स्पाट बॉय आया और मुझे गोरेगावं तक चलने को कहने लगा

......मैंने उसे रिक्शे में बैठाया और चल दिया ....जब हम लोग हेली पैड से उतर रहे थे ...तभी मैंने

हीरो खान की गाड़ी खडी देखी ...तभी स्पाट बॉय बोल पड़ा ....हमारी लाईन जितनी अच्छी है ,

उतनी ही खराब .....अब इन खान साहब को देखो .....इनको रोज एक नई लडकी चाहिए ...अब भी

किसी लडकी की इज्जत से खेल रहेहोंगे .... मैं तभी बोल पड़ा ... तुम लोग कुछ नहीं कहते .....

क्या कहें ? हीरो है ....इनका ही जमाना है ,सब कुछ करने का इनको हक़ है ....वैसे एक बात और

कहूँ ...लडकियाँ भी वैसी हैं ....अब जेबा जी को देख लीजिये ....उनको कोई तिरछी नज़र से

नहीं देख सकता ...यह सुन कर मैं ,मन ही मन खुश हो गया ।

मेरा रिक्शा ,फिल्म सिटी के गेट के पास ही पहुंचा था ....तभी तेजी से ,आती हुई कर

ने मुझे टक्कर मारा ....मेरा रिक्शा उलट गया .....उसके बाद मुझे याद ही नहीं ....जब आँख खुली

मैं हास्पिटल में था ....सर पैर में पट्टी बंधी थी ......मेरे पास डाक्टर आया और मेरा पता पूछने

लगा ....मैंने सब कुछ बताया .....डाक्टर से ही पता चला ....वह स्पाट बॉय ...एक्सिडेंट में नहीं बचा

.......मैं सोचने लगा .....इंसान की क्या कीमत है .....? पुलिस आयी ...मेरा बयान लेने ...मुझसे

एक्सिडेंट के बारे में पूछने लगी .....मैंने कहा ....ढाल थी ,मुझसे ब्रेक नहीं लगा ...और एक्सिडेंट

हो गया .... । मुझे फिर नीद आ गयी ,और शाम पाँच बजे आँख खुली ......अब मैं अस्पताल में नहीं

था ....और न ही अपनी झोपडी में ....कहाँ हूँ ....यही समझ में नहीं आ रहा था .।

एक नौकर ...मुझे खाना दे गया ....एक डाक्टर आया मुझे चेक कर गया ,और कुछ

दवाई खाने को दिया ...मैंने डाक्टर से पूछा मैं कहाँ हूँ ? डाक्टर ने मुझे चेक करते हुए कहा ,अपने घर

में .....यह सुन कर ...मैं डर गया .....कहीं मैं ....मर तो नहीं गया .....डाक्टर चला गया ,मैं अपने आप

से बात करने लगा ...पास रखे शीशे में अपने आप को देखा .....मैं वही हूँ जिसके रिक्शे का एक्सिडेंट

हुआ था । पास ही बाथरूम था ...मैं बाथरूम में गया ....मेरे पैर में चोट नहीं लगी थी ,चलने में मुझे

तकलीफ नहीं थी .......मैं सोचने लगा ,यह घर किसका है ? मुझे यहाँ क्यों रखा गया है ?

......मैं यहाँ से भाग जाना चाहता था ,,लेकिन बाहर जाने का दरवाज़ा बाहर से बंद था ,

मैं कैद में था ...किसने मुझे कैद किया है मुझे नहीं मालूम ,क्यों किया यह भी पता नहीं ।

क्या चाहता है मुझसे ? सुबह का इन्तजार करने लगा ,बिस्तर पे जा कर लेट गया ,बिरजू भी

मुझे खोज रहा होगा ....

...सुबह जब आँख खुली ...मैं उसी कमरे में था ,एक नर्श नुमा लडकी आयी , मुझे चेक

करने लगी ...मैंने उससे पूछा ,मैं कहाँ हूँ ?.....सर आप अपने घर में है ,यह सुन कर मुझे गुस्सा

आ गया ......तुम लोगो ने झूठ बोलने की कसम खा ली है क्या ...सच क्यों नहीं बताते ....सच कह

रही हूँ आप अपने घर में हैं .....चलो यहाँ से जाओ ...बात -बात में झूठ बोल रहे हो .....मैंने चिल्ला

कर कहा .....यह सुन कर वह भाग गयी ....फिर मैं बाहर निकलना चाहा ...पर दरवाजा बाहर

से बंद है ......सच कह रहा हूँ ,मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था ,कहीं मैं किसी चक्कर में तो नहीं

फंस गया हूँ । मैं यहाँ से ,निकलूंगा कैसे ....कहीं उस पिस्तौल और पैसे का चक्कर तो नहीं है ...?

........किस खेल में मैं फंस गया हूँ ....एक तो मर ही गया है ....और मै बचा हूँ ,कोई गैंग तो नहीं

है .....पता नहीं क्यों ....माँ की याद बहुत आने लगी ...बस मन करने लगा कैसे भी कर के मैं अपनी माँ

के पास पहुँच जाऊं ...... ।

अब एक ही रास्ता है ,यहाँ से कैसे भी भाग जाऊं ......उसके लिए मैं रास्ता खोजने लगा

रात का इंतजार करने लगा ......अब मैं इस तरह रहने लगा जैसे यह मेरा ही घर हो ..... ।

...शाम को एक डाक्टर आया ,मुझे चेक किया .....फिर उसने मुझे एक इंजेक्शन दिया ...थोड़ी देर

बाद मैं सो गया ......

सुबह जब मेरी आँख खुली .....मैं यह देख कर दंग हो गया ...मैं अपनी झोपडी ,कपास बाडी

में था ,मेरे बगल बिरजू खड़ा था ....मैं उसे देख कर ...सकते में आ गया ...मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था

....बिरजू से कुछ पूछता ,वह खुद ही कहने लगा .....आज तुम्हे होश आया है तीन दिन बाद .....

मैं था कहाँ ? तीन दिन ...! अस्पताल में .....यह तो जेबा जी की मेहरबानी थी ,जो समय पे तुम्हारा

इलाज हो गया ......मुझे सब झूठ लगने लगा ,बिरजू भी मुझसे झूठ बोलने लगा है .....क्या वजह ,

नहीं मालूम .....या यह भी हो सकता है ....मैं सच में तीन दिन बेहोश ही रहा हूँ ......

.................मैंने सोच लिया है ....अब इस मुम्बई शहर में नहीं रहूँगा ...बस ठीक हो जाऊं एक बार

......जारी ...........


Wednesday, March 17, 2010

सत्तू

.....मैं अपने आप से , बार -बार पूछने लगा ,जो कुछ मैं कर रहा हूँ

इसका अंजाम क्या होगा ?........क्या मैं गुनाह की चादर ओढ़ रहा हूँ ?

इसी उधेड़ -बुन में बैठा रहा ........कुछ सोच के, नोट जो अभी निकाले थे ,

दुबारा उसी झोले में रख दिया ......और आँखे बंद कर के सोने की कोशिश

करने लगा ,पर नीद का कोसों तक पता नहीं था फिर सोचा मैं इस झोले

को किसी मंदिर में रख देता हूँ .....फिर ख्याल आया ,काली मंदिर जाउंगा

वहीं दान पेटी में डाल दूंगा ...यही सोच के सोने कोशिश की ....और सच कहता हूँ

कब आँख लग गयी ,पता ही नहीं चला

शाम को करीब छे बजे आँख खुली .....दोपहर को खाना भी नहीं खाया था

भूख भी ,जोरो से लगी थी ......और मन भी कहींजाने का कर रहा था तभी याद आया

माँ का दिया हुआ ,सत्तू का ख्याल आया ...पास ही टंगे झोले को उठाया ,एक कपडे की पोटली

में था ,खोल के देखा लेकिन ,अभी ख़राब नहीं हुआ था एक थाली ली ,उसमें थोड़ा सा लिया ,

पानी मिला कर सान लिया ,थोड़ा सा नमक डाल लिया ,एक हरी मिर्च ली और खाना शुरू

किया .....बहुत दिनों बाद माँ के हाथ का बना कुछ खा रहा था ,सच कहता हूँ ...माँ के हाथ

में अमृत होता है ,खूब मन से खाया ,बाकी सत्तू उसी कपडे में बांध के रख दिया फिर कभी

खाऊंगा .....तभी ख्याल आया ,जेबा जी को भी सत्तू खिलाने का वादा किया था ,नहीं खिला

पाया उन्हें ,अब तो साथ भी छूट गया


रात आठ बजे मैं काली मंदिर पहुंचा ,पहले मैंने ,एक काली माँ की फोटो खरीदी ,मेरे

हाथ में झोला था ,उसे भी दान पेटी में डालना था ,लेकिन दान पेटी का मुहं बहुत छोटा था ,

नोट तो चला गया ,लेकिन पिस्तौल का क्या करूं ....वह कहाँ रखूं ? यही सोचता हुआ ,मंदिर से

बाहर गया ......पास ही एक नाला बह रहा था ,इतना गंदा पानी था उसका , गंदगी को गंदगी

में फेंक दिया .....इसके बाद इतना हल्का हो गया ,जैसे कोई भार मैं ढो रहा था अभी तक

मंदिर में दुबारा गया माँ के सामने खड़ा हो ,माफ़ी मांगी और कहा ....आज के बाद कभी भी

लालच नहीं करूंगा ....माँ कल से आज तक ठीक से सो नहीं पाया ...अब ..मन इतना निश्चिंत था

जिसको मैं बयान नहीं कर सकता ...जैसे मैं मुड़ा मेरी नजरे किसी खूबसूरत लडकी से जा मिली

वो भी ...मेरी आँखों में झांक रही थी .....दुसरे पल हम दोनों एक दुसरे को पहचान गये .....यह जेबा थी

मैं चुप -चाप वहाँसे चल दिया फिर मैंने अपने आप से पूछा ...जेबा जी मंदिर में ?

तेजी से मैं अपने ऑटो के पास आया .....और सीधा यारी रोड की तरफ चल दिया ,रास्ते में कई

पैसेंजर मिले ,पर मैंने किसी को नहीं लिया .....पहले मैं अपनी खोली की तरफ मुड़ा ,काली माँ की फोटो

मैंने चाय वाली बंगाली औरत को दिया ....वह मेरे इस अंदाज से बहुत खुश हुई ...और फिर बोल पड़ी

इतनी जल्दी नहीं थी ....फिर भी तू ले आया ....खूब भालो कह के , फिर माँ जी को उसने प्रणाम किया॥


और हां ....सुन कोई दो आदमी खोजने आये थे ....मैं एक पल को डर गया .....

मैं कुछ बोला नहीं ...और वहाँ से निकल लिया ....मेरे मन में यही ख्याल आ रहा था ..

कौन मुझे खोजने आया था ? रिक्शा ले कर यारी रोड पहुंचा ....बेला जी की बिल्डिंग के सामने लगा

दिया और इन्तजार करने लगा बार बाला का ......