......गाँव में मेरा बचपना छे साल तक बीता...पढ़ाई के लिए ,मुझे
पिता जी , लखनऊ शहर ले आये .....मैं आकेला ही आया ,माँ
गाँव में ही रह गयी ......यह दौर था सन ५१ का ......पिता जी को
स्टेशन के पास रेलवे कालोनी में घर मिल गया था ......दो कमरे थे
एक किचन था ,किचन से लगा वरांडा.....घर स्टेशन से लगा हुआ था
मैं सुबह ही पिता जी के साथ ...उनके आफिस चला जाता .....लखनऊ
स्टेशन के एक नम्बर प्लेट फ़ार्म पे कैश-आफिस था रेलवेका .....जहां
पिता जी एक कैशियर वतौर काम करते थे ....
नाम मेरा अभी तक कहीं नहीं लिखा गया था ......मैं स्टेशन पे घूमा करता
पढाई के नाम पे कुछ नहीं था ......एक नम्बर प्लेट फ़ार्म पे माल गोदाम था ......मैं
घूमते -घूमते ,जब वहाँ पहुंचता .....माल गोदाम का बाबु मुझे जानता था की मैं
मिसरा जी का लडका हूँ ......जिस भी फल का सीजन होता .....वह फल जरुर खिलाता
......जाते -जाते दो -चार फल दे देता था ...
उस समय .....पिता जी सुबह ही खाना बना देते ....मैं और पिता जी सुबह
दस बजे ही खा लेते थे .......लंच नाम की कोई चीज नहीं थी ........शाम को पिता जी मुझे
चारबाग में ही जलपान नाम का एक बंगाली रेस्टोरेंट था .....शायद अब भी है ....उसके थोड़ा
आगे एक दूध की दूकान थी पंडित जी की ......उस पे सिर्फ दूध और दही ही मिलता था ...पिता जी
मुझे जबर्दस्ती दूध पिलाते थे .....फिर घर आ कर चूल्हे ...पे खाना बनाते थे ......कुछ महीने बाद
मेरे छोटे चाचा भी .....पढने के लिए लखनऊ आ गये ......तब वह क्लाश आठ में थे ....
मेरा नाम .....छित्वापुर स्टेशन रोड पे है ....वहीं पे एक गली है ,सरकारी स्कूल है एक,
वहीं मेरा नाम पहली बार लिखाया गया .....हमारे क्वाटर के बगल से भी एक लड़का वहीं पढ़ता
था ,जिसके साथ मैं जाता था .....
मैं महीना भर गया हूंगा ......फिर उसके बाद मेरा नाम रेलवे के स्कूल में लिखा दिया
गया ....एक आश्चर्य की बात बताता हूँ ....जिस स्कूल में मैं ,पहली बार गया था ....उसी के बगल
वाले मकान में ....ससुराल मेरी है ......उस समय मेरी पत्नी शायद पैदा नहीं हुई थी .....
रेलवे के स्कूल में मैं .......कुल महीना भर गया हूंगा .......एक कुत्ते ने दौड़ाया ....और मैं
नाली में गिर गया ...हाथ -पैर में चोट लगी .......बस वही ...मेरा आखरी दिन था उस स्कूल का
........माँ गाँव से आ गयी ........सन ५२ में मेरा नाम कान्यकुब्ज वोकेशनल में लिखा दिया गया
.......और मै क्लाश १२ तक यहीं पढ़ा .....नाम लिखने के बाद से ......मेरे पिता जी कभी भी मेरे
स्कूल नहीं आये .......
वैसे मेरा नाम भी क्लाश दो में लिखा दिया गया ...पहली क्लाश मैंने पढ़ी ही नहीं
क्लास का पहला दिन मुझे आज तक याद है ....मेरी माँ मुझसे मिलने आयीं थी ...एक बड़ा सा
अमरुद ले कर ......उसकी मिठास आज भी मेरी जबान पे है ....उन टीचर की शक्ल भी मुझे
याद है ......इसी क्लाश में मेरा पहला दोस्त बना ....सुभाष भंडारी ....उसके पिता मिलेट्री में
थे ....
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गुलज़ार साहब के साथ रहे है तो कुछ कविता, ग़ज़ल, नज़्म लिखिए ज़नाब!
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