सारा गाँव ,उन्हें भौजी बुलाता था ....यह आज की बात नहीं है । यह दौर है ,
सन पचास से सन साठ का ....अभी कुछ वर्ष पहले देश आजाद हुआ था ।
गरीबी बहुत थी ...दो वक्त का खाना ,नसीब नहीं था ...बच्चे एक लगोंटी में
घूमते थे .....भौजी ही एक ही थी ....जो सभी का ख्याल रखती थीं ....उनके पति
रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर थे .....भौजी के तीन बेटे एक बेटी थी बड़े बेटे भी
रेलवे में नौकरी करते थे ....लखनऊ शहर में ...., छोटे दोनों भाई उनके साथ रह के
पढ़ते थे .....गाँव में खेत थे ....लेकिन सिचाई के साधन नहीं थे ...फसल वगैर पानी
के सूख जाती थी ......
भौजी ही एक थी ....जो गरीबों को धन से अनाज से सहायता करती थी ....किसी
गरीब के घर में शादी ब्याह पड़ा , तो भौजी को सारा इंतजाम करना पड़ता था...गिरधारी
ने अपनी बीबी को निकाल दिया तो ........भौजी ने उसे अपने घर में रख लिया ...उसके बच्चों
का ख्याल रखा .... गरीबी से तंग आ कर किसान शहर की तरफ भागता ....भौजी से किराया लेने आता
भौजी जल्दी पैसा नहीं देती ....उससे पूछती ...ए....निरहू ...तू तो जात हया शहर......यहाँ तोहरे
लडकन का के देखे ......निरहू का एक ही जवाब होता भौजी ....तू हऊ ...न ....और वह
आदमी इतना कह के रोने लगता .....अब भौजी कुछ नहीं बोलती .....और घर में से दस रुपया
निकाल के लाती ....और उसे देती .......उस समय कलकत्ता का किराया ...सात रुपया था
.........निरहू के जाते ....जायर मियां आते ...उनके सर पे एक टोकरी होती ......भौजी के सामने
उतार के रखते ...आमों से भरी टोकरी होती ......गाँव में सबसे पहले ...इनके ही पेड़ के आम
पकते थे .....जायर मियां के बच्चे खाए या ना खाएं ...भौजी के घर आम की टोकरी पहले
आती ....यह वह समय था जब आम बेचने का रिवाज नहीं था .....भौजी की बिटिया की शादी
जमींदार घराने में हुई थी ......आम के सीजन में ....जमींदार साहब आठ से दस टोकरी आमों की
भेजते थे ....जायर मियां की टोकरी घर के अन्दर चली जाती....घर में खाने वाले भौजी नाती पोते
थे ..जो शहर से गर्मिओं की छुट्टी में आते थे ......
जायर मियाँ अपनी टोकरी के इन्तजार में बैठे रहते ......भौजी पूछ लेती ....कोई चीज की
जरूरत तो नहीं है ?........जायर मियाँ धीरे से कह देते ......भौजी यह साल ...सब अरहरिया
झुराय गय.......भौजी समझ गयी ....और घर के अंदर से टोकरी में अरहर की दाल ही
आयी .....और जायर मियां ने टोकरी सर पे रखी ....और अपने घर की तरफ चल दिए
भौजी एक इशारे पे काम करने वालों की लाइन लग जाती थी .....भौजी के पति ने
जितना कमाया ....वह सब गाँव वालों पे लग जाता .....पर उनके पति ने कभी नहीं पूछा
...पैसा कहाँ जाता है ?.......समय के साथ -साथ चीजे बदलने लगी ....भौजी के पति रिटायर
हो कर घर आ गए .....सन सतावन में रिटायर हुए थे .....पति के आ जाने से ....भौजी के बांटने
में थोड़ी कमी जरूर आई .....पर रोब -दाब वही रहा .....उनके पति को सभी दादा जी कहते थे
वो घर के द्वार पे ही बैठे रहते थे ......दादा जी सरकारी नौकरी कर के आये थे ...बात -चीत शहरी
नुमा थी ......गांव के लोग डर के मारे दादा जी से दूर ही भागते थे .... अब गांव वाले भौजी से ......
मिलने पिछवाड़े से आते थे .....और भौजी भी उसी तरह बांटती धन ...अनाज .... ।
भौजी को फालिज का अटैक पड़ा .....वह शहर गयी ....बड़े बेटे के पास वहीं
उनका इलाज होने लगा ......लेकिन उनका एक अंग काम नहीं करता ......यहाँ उनकी बडी बहु
सेवा करती ......चार -छे महीने के बाद .....भौजी गांव जाने की जिद्द करने लगी .....एक दिन
भौजी के बड़े बेटे ने पूछा .....माई घर जा कर क्या करोगी .....यहाँ तो सभी हैं बेटे बहु पोते गांव
में तो कोई नहीं है .......भौजी ने कहा .....हमें तुम लोगों की इतनी मोह नहीं लगती ....जितनी
गांव वालों की याद आती है .....मुझे वहीं भेज दो ......कुछ दिनों बाद भौजी को गांव भेज दिया
गया ......सारा गांव ...उमड़ पड़ा उनकों देखने के लिए .....और अपनी आखरी सांस तक गांव
में ही रहीं ......आज भी .....हर गांव वाला अपनी तकलीफ ले के आता ......और भौजी उसको
पूरा करती ....
भौजी की मौत सन अस्सी में हो गयी .....आज भी गांव में भौजी को लोग याद करते हैं ...हर गांव वाले
के पास अपनी एक कहानी है .....कब -कब भौजी ने उसकी सहायता की थी ......आज भी भौजी
का बनाया हुआ मकान वैसा -का वैसा है ....डेढ़ गजी दीवार आज तक वैसी ही मजबूती से है .....घर के कोठे
सुने पड़े हैं ......कभी अनाज भरा रहता था .......अब सूना है .....उनके नाती पोते शहरों में रहते हैं
गांव की कोई खबर नहीं लेते .......भौजी के ही दान पुन्न से ....नाती पोते बड़े -बड़े साहब बन गए ..पर
......आम की बगिया सुनी पड़ी है ......खेत ...भौजी को सोच सोच के रोते हैं .......नहीं तो उनका
पैदा किया हुआ अनाज भूखों के पेट तक जाता था .......अब कहाँ जाता है किसो क्या मालूम
.........एक दिन जरूर आएगा ....किसी को भौजी का अंस मिले गा ....और अपने गांव की सेवा
करेगा .......
Monday, April 26, 2010
Wednesday, April 21, 2010
माँ
सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था ,एक दिन पंडित जी का जवान बेटा गुज़र गया ,
बहुत बड़ी खेती थी ...अब उसे कौन देखेगा ? यही विचार उनके मन में गूंज रही थी ,
खुद भी साठ से ऊपर हो चुके थे ....उनका वंस कैसे चले गा ? बेटे के अचानक गुजर
जाने से ....उसकी पत्नी पेट से जरुर थी ....बेटे के इस तरंह गुजर जाने से ....पंडित जी
की पत्नी ....अपने आप को नहीं सभाल पायी ...और आठवे महीने में ही ....बच्चे को जन्म
दे दिया ......एक आस थी ...वंस चलने की , लगता था ....वह भी नहीं पूरा अब होगा ।
लेकिन जब दाई ने आ के बताया ...बेटा हुआ ...और ठीक हैं जच्चा और बच्चा । यह सुन कर
पंडित जी .....की खुशी सातवें आसमान जा पहुंची .....अब उनका वंस चल जाएगा .....
गाँव भर के लोगों को .....दावत दी गयी ....नाच गाना हुआ ...घर में भरा अनाज
गाँव भर बांटा गया ....बेटे के गुजरने का गम थोड़ा कम हुआ ....एक आश जगी, आने वाले कल की
उन्होंने बेटे का नाम भी सोच भी लिया .....हिरदय मड़ी ......सब कुछ तो ठीक था ....लेकिन
बच्चा... दूध माँ का नहीं पी पा रहा था .....दाई ने पंडित जी को आ कर बताया ....माँ का दूध
सूख गया है ....दाई ने कहा ...गाय का दूध पिलाने की कोशिश की लेकिन वह भी नहीं पी रहा है
अब एक ही रास्ता है ,.......किसी औरत का ही दूध पिलाया जाय......! पंडित जी
यह सुन कर कुछ समझ नहीं पाए .....दाई को कहा ....मुझे कुछ नहीं मालूम ...मेरे पोते को कुछ
नहीं होना चाहिए ।
दाई ने कहा ........अब एक ही रास्ता है .....हरखुआ की मेहरारू को बच्चा हुआ है
अब आप ही बताओ ...क्या किया जाय ....पंडित जी बोल पड़े .....हमार पोता हरखुआ की
मेहरारू का दूध पियेगा .....? गाँव छोटा था पाँच घर पंडितों का था ....दो घर बनिओं का था
और रहने वाले लोग गाँव के भर जात के थे ......और हरखुआ भर ही था ...
रात दूसरा पहर बीत रहा था .....पंडित जी का पोता .....भूख के मारे रोता ही जा रहा था
......छोटा सा गाँव था .....पंडित जी पोते की बात....सभीको पता लग गयी थी ...माँ का दूध
सूख गया है ....और पंडित जी एक भरिन के शरीर का दूध कैसे पिलायेंगें ?......गांव के बूढे -बुजूर्ग ,पंडित जी के घर के सामने इकठा हो गये थे .....सभी का यही कहना था .....हरखुआ के घर की गाय का
दूध आप पी लेंगे ... ब्च्चुआ को पिला देगें ...पर ओकर मेहरारू का दूध काहे नहीं .....?
हरखुआ की मेहरारू को बुलाया गया .....और पंडित जी के वंस को पालने के लिए
भ रिन ने अपना दूध पिलाया बच्चा चुप हो गया ....साल भर तक वह औरत पंडित जी के
पोते दूध पिलाती रही ....उसका बेटा ज्यादा दूध नहीं पी पाता था...हरखुआ का बच्चा बीमार
रहने लगा ......अब पंडित जी का बेटा .....ऊपर का दूध पीनेलगा ....और अब पंडित जी ...
पोते को ...हरखुआ के घर नहीं भेजते थे ........
इसी बीच गाँव में चेचक का रोग फ़ैल गया ....राम मिलन को भी चेचक निकली .....
और वह नहीं बच पाया ...माँ की कोख सुनी हो गयी .....वह रोई ......बहुत रोई ....उस बच्चे
को देखना चाहती थी ....जिसे उसने दूध पिलाया था ......पर पंडित जी ने ....उस दुखी माँ के
पास अपने पोते को नहीं भेजा .....
..........पंडित जी नहीं चाहते थे .....उनके पोते को किसी की नजर न लगे .....वही उनके वंस को चलाने
वाला था ....धीरे -धीरे समय बीतने लगा बच्चा पाँच वर्ष का हो गया ......इसी बीच पंडित जी
की बहु का देहांत हो गया .....यह सब देख कर बच्चा बहुत सहम गया ....और उस दूध पिलाने वाली
माँ के पास आ गया । हरखुआ की बीबी यह देख कर बहुत खुश हुई ..बहुत अर्से बाद माँ की मुराद पूरी.हुई ..पंडित जी अब हार गये .....उनका पोता फिर से वहीं पलने लगा ...बस थोड़ी देर के लिए अपने घर
एक दूध पिलाने वाली माँ को अपना बेटा मिल गया ...उसका दर्द कुछ कम हुआ ..........
समय के साथ हिरदय मड़ी बड़ा हो गया .....उसके दादा जी भी गुजर गये
......और अपनी दूध पिलाने वाली माँ के साथ रहने लगा ....समय के साथ -साथ
हिरदय मणीकी शादी हो गयी ....उसके अपने बच्चे होगये ..हरखुआ भी मर गया .हिरदय मड़ी ....
उस बूढी माँ को अपने घर ले आया .........जो पत्नी को अच्छा नहीं लगा .....
पति ने सारी कहानी बताई .....उसे जीवन देने वाली औरत उसकी माँ नहीं ...यह औरत है
.....कैसा उसका बचपना बीता......पत्नी... पति के दर्द को नहीं समझ पायी
.............पत्नी ....माँ के प्यार को बर्दाश नहीं कर पायी .....बूढी माँ ....एक दिन घर के कुएं
में गिर के मर गयी ......बेटा इस हादसे को जान गया था .....किसी से कुछ नहीं कहा और एक
शाम ......उसने सोचा वंस चलने के लिए दो बेटे थे ! .......अपने बाबा को दिया वादा पूरा
कर दिया था .....और घर छोड़ के कहाँ चला गया ,किसी को कुछ नहीं मालूम ......
बहुत बड़ी खेती थी ...अब उसे कौन देखेगा ? यही विचार उनके मन में गूंज रही थी ,
खुद भी साठ से ऊपर हो चुके थे ....उनका वंस कैसे चले गा ? बेटे के अचानक गुजर
जाने से ....उसकी पत्नी पेट से जरुर थी ....बेटे के इस तरंह गुजर जाने से ....पंडित जी
की पत्नी ....अपने आप को नहीं सभाल पायी ...और आठवे महीने में ही ....बच्चे को जन्म
दे दिया ......एक आस थी ...वंस चलने की , लगता था ....वह भी नहीं पूरा अब होगा ।
लेकिन जब दाई ने आ के बताया ...बेटा हुआ ...और ठीक हैं जच्चा और बच्चा । यह सुन कर
पंडित जी .....की खुशी सातवें आसमान जा पहुंची .....अब उनका वंस चल जाएगा .....
गाँव भर के लोगों को .....दावत दी गयी ....नाच गाना हुआ ...घर में भरा अनाज
गाँव भर बांटा गया ....बेटे के गुजरने का गम थोड़ा कम हुआ ....एक आश जगी, आने वाले कल की
उन्होंने बेटे का नाम भी सोच भी लिया .....हिरदय मड़ी ......सब कुछ तो ठीक था ....लेकिन
बच्चा... दूध माँ का नहीं पी पा रहा था .....दाई ने पंडित जी को आ कर बताया ....माँ का दूध
सूख गया है ....दाई ने कहा ...गाय का दूध पिलाने की कोशिश की लेकिन वह भी नहीं पी रहा है
अब एक ही रास्ता है ,.......किसी औरत का ही दूध पिलाया जाय......! पंडित जी
यह सुन कर कुछ समझ नहीं पाए .....दाई को कहा ....मुझे कुछ नहीं मालूम ...मेरे पोते को कुछ
नहीं होना चाहिए ।
दाई ने कहा ........अब एक ही रास्ता है .....हरखुआ की मेहरारू को बच्चा हुआ है
अब आप ही बताओ ...क्या किया जाय ....पंडित जी बोल पड़े .....हमार पोता हरखुआ की
मेहरारू का दूध पियेगा .....? गाँव छोटा था पाँच घर पंडितों का था ....दो घर बनिओं का था
और रहने वाले लोग गाँव के भर जात के थे ......और हरखुआ भर ही था ...
रात दूसरा पहर बीत रहा था .....पंडित जी का पोता .....भूख के मारे रोता ही जा रहा था
......छोटा सा गाँव था .....पंडित जी पोते की बात....सभीको पता लग गयी थी ...माँ का दूध
सूख गया है ....और पंडित जी एक भरिन के शरीर का दूध कैसे पिलायेंगें ?......गांव के बूढे -बुजूर्ग ,पंडित जी के घर के सामने इकठा हो गये थे .....सभी का यही कहना था .....हरखुआ के घर की गाय का
दूध आप पी लेंगे ... ब्च्चुआ को पिला देगें ...पर ओकर मेहरारू का दूध काहे नहीं .....?
हरखुआ की मेहरारू को बुलाया गया .....और पंडित जी के वंस को पालने के लिए
भ रिन ने अपना दूध पिलाया बच्चा चुप हो गया ....साल भर तक वह औरत पंडित जी के
पोते दूध पिलाती रही ....उसका बेटा ज्यादा दूध नहीं पी पाता था...हरखुआ का बच्चा बीमार
रहने लगा ......अब पंडित जी का बेटा .....ऊपर का दूध पीनेलगा ....और अब पंडित जी ...
पोते को ...हरखुआ के घर नहीं भेजते थे ........
इसी बीच गाँव में चेचक का रोग फ़ैल गया ....राम मिलन को भी चेचक निकली .....
और वह नहीं बच पाया ...माँ की कोख सुनी हो गयी .....वह रोई ......बहुत रोई ....उस बच्चे
को देखना चाहती थी ....जिसे उसने दूध पिलाया था ......पर पंडित जी ने ....उस दुखी माँ के
पास अपने पोते को नहीं भेजा .....
..........पंडित जी नहीं चाहते थे .....उनके पोते को किसी की नजर न लगे .....वही उनके वंस को चलाने
वाला था ....धीरे -धीरे समय बीतने लगा बच्चा पाँच वर्ष का हो गया ......इसी बीच पंडित जी
की बहु का देहांत हो गया .....यह सब देख कर बच्चा बहुत सहम गया ....और उस दूध पिलाने वाली
माँ के पास आ गया । हरखुआ की बीबी यह देख कर बहुत खुश हुई ..बहुत अर्से बाद माँ की मुराद पूरी.हुई ..पंडित जी अब हार गये .....उनका पोता फिर से वहीं पलने लगा ...बस थोड़ी देर के लिए अपने घर
एक दूध पिलाने वाली माँ को अपना बेटा मिल गया ...उसका दर्द कुछ कम हुआ ..........
समय के साथ हिरदय मड़ी बड़ा हो गया .....उसके दादा जी भी गुजर गये
......और अपनी दूध पिलाने वाली माँ के साथ रहने लगा ....समय के साथ -साथ
हिरदय मणीकी शादी हो गयी ....उसके अपने बच्चे होगये ..हरखुआ भी मर गया .हिरदय मड़ी ....
उस बूढी माँ को अपने घर ले आया .........जो पत्नी को अच्छा नहीं लगा .....
पति ने सारी कहानी बताई .....उसे जीवन देने वाली औरत उसकी माँ नहीं ...यह औरत है
.....कैसा उसका बचपना बीता......पत्नी... पति के दर्द को नहीं समझ पायी
.............पत्नी ....माँ के प्यार को बर्दाश नहीं कर पायी .....बूढी माँ ....एक दिन घर के कुएं
में गिर के मर गयी ......बेटा इस हादसे को जान गया था .....किसी से कुछ नहीं कहा और एक
शाम ......उसने सोचा वंस चलने के लिए दो बेटे थे ! .......अपने बाबा को दिया वादा पूरा
कर दिया था .....और घर छोड़ के कहाँ चला गया ,किसी को कुछ नहीं मालूम ......
Monday, April 19, 2010
धन्नों बुआ
.......धन्नों बुआ ....गाँव भर की बुआ थी ....पांच भाईओं की बहन
सभी भाई अपना -अपना परिवार ले कर अलग अलग रहते हैं ... ॥
धन्नों बुआ को भी दो कमरे दे दिया था ....तीन बीघा जमीन दे दिया था
उसी से उनका गुजारा होता था .....करीब आठ से दस साल की थी ,
तभी उनका विवाह हो गया था ....और गौना करीब तेरह साल में
.......जब अपने घर पहुंची ,बहुत बड़ा परिवार था ,पाँच भाईओं की दुलारी थी
यहाँ आ कर इतने बड़े परिवार में अपने पति को खोजना ....बड़ा मुश्किल काम
था .......इतना बड़ा घूँघट करना पड़ता था की जमीन के अलावा कुछ नहीं दिखाई
पड़ता था ..दो दिन तक बुआ अपनी सास के साथ सोती रहीं ....पति के दर्शन तक
नहीं हुआ ,उस जमाने में लडकियाँ अपने पति के बारे में कुछ नहीं पूछ पाती थी
बुआ ने कहा, उनके भाई चौथी ले कर आये .....मैंने सोच लिया था ...मैं अपने
भाईओं के साथ अपने गाँव चली जाउंगी .....और मुझे मालूम था मेरी बात मेरे भाई जरुर
मान जायेगें .....जब मैं अपने भाईओं से मिली .....उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी ....पहली
बार मुझे अपने भाईओं पे बहुत गुस्सा आया । उन्होंने ही मुझे बताया गौरी शंकर जेल में बंद हैं
........मुझे तब तक जेल का ,क्या मतलब होता है मुझे नहीं मालूम था । और जेल भी गये हैं देश
को आजाद कराने के लिए ....कब आयेंगे किसी को कुछ नहीं मालूम था .....गौरी शंकर मेरे पति थे
महीना बीत गया .....इसीबीच पुलिस आयी और हमारे घर की कुडकी हो गयी ....मुझे मेरे
घर पहुंचा दिया गया ...अपने परिवार से मिल कर बहुत खुश हुई और मैंने यह सोच लिया था
अब मैं कभी भी ...अपने ससुराल नहीं जाउंगी ........करीब दो महीने बाद ....मैं विधवा भी
हो गयी ......भैया ने बताया ,गौरी शंकर की मौत जेल में हो गयी .....मुझे मेरी माँ ने सफेद
साड़ी पहनने को दिया..तब मुझे सफेद और रंग दार में बहुत ज्यादा फर्क नजर नहीं आता था
माँ और पिता के मरने के बाद ....भाई लोग अलग हो गये ,मेरा लगाव सब से
छोटी भाभी से था ......मुझे भी हिस्से में जमीन मिली और आम की बाग़ में से तीन पेड़ भी
मिले ......मैं ...बुआ ने बताया ...उनका अलग रहना ....भाईओं को अच्छा नहीं लगता था
हर कोई यही चाहता था ..मैं उनके साथ रहूँ ......मैं आजाद रहना चाहती थी ....और वही
किया ....बुआ कहती थी उनके खेतों में खूब पैदावार होता था .....और मेरे आम के पेड़ों में भी
खूब आम लगते थे .....अकेली जान इतने आम कैसे खाऊं आम को उस समय बेचने की रवायत
नहीं थी .......मैं आमों को गाँव में बाँट देती थी .......अनाज का भी यही करती थी .....तभी से राज
कुमारी से मैं धन्नों बुआ हो गयी ।
वक्त के साथ -साथ दिन बीतने लगे .....बुआ चालीस पार कर चुकी थी देश आजादहो गया था
एक दिन एक अजनबी आदमी इनके घर आया और अपने आप को गौरी शंकर बताने लगा ......
बुआ ने उसे पहचाने से मना कर दिया ....और सीधे ही कह दिया .....मैं बिधवा की तरह जीती रही
अब मैं सोहागन बन के नहीं जीना चाहती .......भाईओं ने भी समझाया .....पर धन्नों बुआ जो जिन्दगी
जी रहीं थी ....उसको अब छोड़ना नहीं चाहती थी ......
गौरी शंकर चले गये .......उसके बाद कभी नहीं आये ......और न ही बुआ का हाल
जाना ......सन पचास था ...मैं करीब चार या पाँच साल का था .....मैं जब शहर से गाँव आता
था ...मैं धन्नों बुआ के पास सोता था ....उस समय वह करीब साढ़ के करीब थी ...मुझे बहुत
प्यार करती थी ....दो महीने इनके साथ रहता था ....आमों का मौसम होता ....मुझे आम रस
देती थी उसके साथ रोटी ........ अक्सर मुझसे कहती .....जब मैं मरूँ मुझे चन्दन की
लकड़ी पे जलाना .....और मैं पूरा वादा करता ....वैसा ही करूंगा ...जैसा वह कह रहीं है ......
......पर मेरे वादे सब झूठे हो गये ....सत्तर साल की उम्र में उनका देहांत हो गया .....मै जा भी नहीं
पाया उनकी जमीन पेड़ हम लोगों को मिल गये ......
धन्नों बुआ जब मरी .....हम लोगो ने गौरी शंकर जी को बुलाया .....लेकिन उन्होंने बहुत कहने
पे मुखाग्नी दी .........धन्नों बुआ की एक छोटी सी बक्सी थी ......उसे जब खोल के देखा गया
उसमें एक लाल रंग की साड़ी थी ...जिसे पहनके उनकी शादी हुई थी .....
वह शादी का जोड़ा ....मेरी माँ ले आई थी ....और मेरी पत्नी को दिया था .....और एक ही
बात कही थी .....जीना तो .....धन्नों बुआ की तरह जीना .......
सभी भाई अपना -अपना परिवार ले कर अलग अलग रहते हैं ... ॥
धन्नों बुआ को भी दो कमरे दे दिया था ....तीन बीघा जमीन दे दिया था
उसी से उनका गुजारा होता था .....करीब आठ से दस साल की थी ,
तभी उनका विवाह हो गया था ....और गौना करीब तेरह साल में
.......जब अपने घर पहुंची ,बहुत बड़ा परिवार था ,पाँच भाईओं की दुलारी थी
यहाँ आ कर इतने बड़े परिवार में अपने पति को खोजना ....बड़ा मुश्किल काम
था .......इतना बड़ा घूँघट करना पड़ता था की जमीन के अलावा कुछ नहीं दिखाई
पड़ता था ..दो दिन तक बुआ अपनी सास के साथ सोती रहीं ....पति के दर्शन तक
नहीं हुआ ,उस जमाने में लडकियाँ अपने पति के बारे में कुछ नहीं पूछ पाती थी
बुआ ने कहा, उनके भाई चौथी ले कर आये .....मैंने सोच लिया था ...मैं अपने
भाईओं के साथ अपने गाँव चली जाउंगी .....और मुझे मालूम था मेरी बात मेरे भाई जरुर
मान जायेगें .....जब मैं अपने भाईओं से मिली .....उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी ....पहली
बार मुझे अपने भाईओं पे बहुत गुस्सा आया । उन्होंने ही मुझे बताया गौरी शंकर जेल में बंद हैं
........मुझे तब तक जेल का ,क्या मतलब होता है मुझे नहीं मालूम था । और जेल भी गये हैं देश
को आजाद कराने के लिए ....कब आयेंगे किसी को कुछ नहीं मालूम था .....गौरी शंकर मेरे पति थे
महीना बीत गया .....इसीबीच पुलिस आयी और हमारे घर की कुडकी हो गयी ....मुझे मेरे
घर पहुंचा दिया गया ...अपने परिवार से मिल कर बहुत खुश हुई और मैंने यह सोच लिया था
अब मैं कभी भी ...अपने ससुराल नहीं जाउंगी ........करीब दो महीने बाद ....मैं विधवा भी
हो गयी ......भैया ने बताया ,गौरी शंकर की मौत जेल में हो गयी .....मुझे मेरी माँ ने सफेद
साड़ी पहनने को दिया..तब मुझे सफेद और रंग दार में बहुत ज्यादा फर्क नजर नहीं आता था
माँ और पिता के मरने के बाद ....भाई लोग अलग हो गये ,मेरा लगाव सब से
छोटी भाभी से था ......मुझे भी हिस्से में जमीन मिली और आम की बाग़ में से तीन पेड़ भी
मिले ......मैं ...बुआ ने बताया ...उनका अलग रहना ....भाईओं को अच्छा नहीं लगता था
हर कोई यही चाहता था ..मैं उनके साथ रहूँ ......मैं आजाद रहना चाहती थी ....और वही
किया ....बुआ कहती थी उनके खेतों में खूब पैदावार होता था .....और मेरे आम के पेड़ों में भी
खूब आम लगते थे .....अकेली जान इतने आम कैसे खाऊं आम को उस समय बेचने की रवायत
नहीं थी .......मैं आमों को गाँव में बाँट देती थी .......अनाज का भी यही करती थी .....तभी से राज
कुमारी से मैं धन्नों बुआ हो गयी ।
वक्त के साथ -साथ दिन बीतने लगे .....बुआ चालीस पार कर चुकी थी देश आजादहो गया था
एक दिन एक अजनबी आदमी इनके घर आया और अपने आप को गौरी शंकर बताने लगा ......
बुआ ने उसे पहचाने से मना कर दिया ....और सीधे ही कह दिया .....मैं बिधवा की तरह जीती रही
अब मैं सोहागन बन के नहीं जीना चाहती .......भाईओं ने भी समझाया .....पर धन्नों बुआ जो जिन्दगी
जी रहीं थी ....उसको अब छोड़ना नहीं चाहती थी ......
गौरी शंकर चले गये .......उसके बाद कभी नहीं आये ......और न ही बुआ का हाल
जाना ......सन पचास था ...मैं करीब चार या पाँच साल का था .....मैं जब शहर से गाँव आता
था ...मैं धन्नों बुआ के पास सोता था ....उस समय वह करीब साढ़ के करीब थी ...मुझे बहुत
प्यार करती थी ....दो महीने इनके साथ रहता था ....आमों का मौसम होता ....मुझे आम रस
देती थी उसके साथ रोटी ........ अक्सर मुझसे कहती .....जब मैं मरूँ मुझे चन्दन की
लकड़ी पे जलाना .....और मैं पूरा वादा करता ....वैसा ही करूंगा ...जैसा वह कह रहीं है ......
......पर मेरे वादे सब झूठे हो गये ....सत्तर साल की उम्र में उनका देहांत हो गया .....मै जा भी नहीं
पाया उनकी जमीन पेड़ हम लोगों को मिल गये ......
धन्नों बुआ जब मरी .....हम लोगो ने गौरी शंकर जी को बुलाया .....लेकिन उन्होंने बहुत कहने
पे मुखाग्नी दी .........धन्नों बुआ की एक छोटी सी बक्सी थी ......उसे जब खोल के देखा गया
उसमें एक लाल रंग की साड़ी थी ...जिसे पहनके उनकी शादी हुई थी .....
वह शादी का जोड़ा ....मेरी माँ ले आई थी ....और मेरी पत्नी को दिया था .....और एक ही
बात कही थी .....जीना तो .....धन्नों बुआ की तरह जीना .......
Wednesday, April 14, 2010
डाकू मामा
........हम बच्चे , उन्हें डाकू मामा कह के बुलाते थे । क्यों बुलाते थे ?
नहीं हमें मालूम .....एक दिन , मैंने अपनी दादी से पूछा ....दादी , ये डाकू मामा ,
सच -मुच के डाकू हैं ? दादी ने जो बताया , वह मेरी समझ में नहीं
आया । डाकू मामा की .....दो साल की बिटिया को .....दिप्पन दादी पालती थी ,
जिसे देखने के लिए ....डाकू मामा आते थे । मेरे घर के सामने का घर दिप्प्न दादी
का था ......दिप्पन दादी ,बहुत गोरी थी .....मुझसे बहुत प्यार करती थी ......वह मेरे
पिता की भी दादी थी ....जब मैं गाँव आता ,मैं उनके ही पास सोने की जिद्द करता था
.........एक तरफ चंदा सोती और एक तरफ मैं ......
आज डाकू मामा , चन्दा को देखने आये थे .....जब भी आते ..... गुड की बनी
मिठाई जरुर लाते थे ....उस समय गाँव में गुड की ही मिठाई बनती थी ....चोटहा गट्टा ले
कर आते थे ....दिप्पन दादी हम सभी बच्चों को देती थी । डाकू मामा बहुत लम्बे थे ,एक
आँख ...दूसरी आँख से बहुत बड़ी थी ,जिससे उनका चेहरा डरावना लगता था । कोई भी बच्चा
उनके करीब नहीं आता था ,बस दूर से या छिप के " डाकू मामा "कह के हम उन्हें चिढाते थे ।
डाकू मामा अपनी एक आँख निकाल के , हम बच्चों को डराते थे .....दिप्पन दादी
के सगे भाई थे । यह मेरी दादी ने मुझे बताया था ,लेकिन मैं उनसे नहीं डरता था । दोस्त मेरे
मुझे बहादुर समझते थे ,डाकू मामा ने शादी नहीं की थी .........फिर यह चन्दा कहाँ से आयी ?
..........यही सब, मेरी मंडली जानना चाहती थी ......हम सभी लडके ,आम की बगिया में बैठ
के आपस में यही बात करते थे .....राधे कहता था ,हमें भी डाकू बन जाना चाहिए ....तब हम
कुछ भी कर सकते हैं ....हमें स्कूल भी नहीं जाना पड़ेगा ,और ना ही मुंशी जी की मार खानी
पड़ेगी ...
मैंने कहा .....मैं डाकू मामा से पूछूंगा ....डाकू कैसे बना जाता है ?.....मेरी बात
से सभी सहमत हो गये । सुरेस, कहांर जात का था ....लेकिन वह हमारे साथ ही रहता था ।
जब कभी ....हम पंडितों को दावत मिलती किसी दुसरे गाँव से ,हम उसे भी ले जाते थे ......
उसे एक जनेऊ पहना देते थे और अपने साथ ही पांत में बैठा लेते थे ,किसी को भी शक नहीं होता
था .......यह कहांर का लडका है । हम लडके पूड़ी खाते -खाते कुछ पुड़ियाँ छिपा के अपनी हाफ
पैंट की जेब में डाल लेते थे .....घर आ के इकठा करते ...जब भी मैं गाँव आता ...एक कुत्ता जरुर
पाल लेता ....इसी कुत्ते के लिए हम पुड़ियाँ लाये थे ....उसे खिलाया करते थे
रात को ,दिप्पन दादी के पास सोते हुए ,मैंने पूछा ....."दादी डाकू मामा सच में डाकू हैं " ?
.......वह मेरी तरफ थोड़ी देर तक देखती रहीं .....फिर कहने लगी .....मुझे मालूम है ...तू क्यों जानना
चाहता है ? .....बेटा .....,बहुत साल पहले की बात है,मेरी शादी तेरे दादा जी से तै हो गयी थी ,
डाकू मामा जी मेरे बड़े भाई थे .....शादी से दो रोज पहले ,हमारे घर पे डाका पड़ा .....डाकू मामा
शुरू से ही कुस्ती और पहलवानी का बहुत शौक था .....आस -पास इलाके में उनका जैसा कोई
तगड़ा इंसान नहीं था । डाकू मामा .....उन डाकुओं से लड़ते हुए ....अपनी आँख तक गवा दिया
......इसी घटना के बाद से सभी लोग उन्हें डाकू मामा ...कह के बुलाने लगे .....और यह चन्दा
मामा जी की सगी बेटी है .......यह गाँव वाले जो कहते ....उन्हें मत सुना कर .....दिप्पन दादी की
बात सुनते - सुनते कब सो गया ....आगे क्या बताया मुझे नहीं मालूम ....
इस घटना को .....करीब चालीस साल हो गये ....न दिप्पन दादी रहीं ....न डाकू मामा जी
वो चन्दा आज भी है ......उसकी शादी एक अच्छे खानदान में हुई ....दो बेटियाँ हैं ......और डाकू मामा
जी इतना धन छोड़ के गये हैं .......लोग आज भी कहते हैं ...सब लूटा हुआ माल है ....चन्दा ,जो आज
मौज से रह रही है ......डाकू मामा की देन है ....
चन्दा के पास सच में बहुत धन है ....एक सेठानी की तरह रहती है .......रिश्ते में मैं उसे
बुआ कहता हूँ ....आज भी हमारे घर में कोई भी तीज -त्यौहार होता है उन्हें जरुर बुलाया जाता है
..............हमारी मण्डली आज भी मिलती है ....आज भी ,वह आम की बगिया है .....पर सारे पेड़
बूढ़े हो गये हैं, फल भी बहुत कम लगते हैं ........हम सभी भी तो बूढ़े हो गयें हैं ...... ।
नहीं हमें मालूम .....एक दिन , मैंने अपनी दादी से पूछा ....दादी , ये डाकू मामा ,
सच -मुच के डाकू हैं ? दादी ने जो बताया , वह मेरी समझ में नहीं
आया । डाकू मामा की .....दो साल की बिटिया को .....दिप्पन दादी पालती थी ,
जिसे देखने के लिए ....डाकू मामा आते थे । मेरे घर के सामने का घर दिप्प्न दादी
का था ......दिप्पन दादी ,बहुत गोरी थी .....मुझसे बहुत प्यार करती थी ......वह मेरे
पिता की भी दादी थी ....जब मैं गाँव आता ,मैं उनके ही पास सोने की जिद्द करता था
.........एक तरफ चंदा सोती और एक तरफ मैं ......
आज डाकू मामा , चन्दा को देखने आये थे .....जब भी आते ..... गुड की बनी
मिठाई जरुर लाते थे ....उस समय गाँव में गुड की ही मिठाई बनती थी ....चोटहा गट्टा ले
कर आते थे ....दिप्पन दादी हम सभी बच्चों को देती थी । डाकू मामा बहुत लम्बे थे ,एक
आँख ...दूसरी आँख से बहुत बड़ी थी ,जिससे उनका चेहरा डरावना लगता था । कोई भी बच्चा
उनके करीब नहीं आता था ,बस दूर से या छिप के " डाकू मामा "कह के हम उन्हें चिढाते थे ।
डाकू मामा अपनी एक आँख निकाल के , हम बच्चों को डराते थे .....दिप्पन दादी
के सगे भाई थे । यह मेरी दादी ने मुझे बताया था ,लेकिन मैं उनसे नहीं डरता था । दोस्त मेरे
मुझे बहादुर समझते थे ,डाकू मामा ने शादी नहीं की थी .........फिर यह चन्दा कहाँ से आयी ?
..........यही सब, मेरी मंडली जानना चाहती थी ......हम सभी लडके ,आम की बगिया में बैठ
के आपस में यही बात करते थे .....राधे कहता था ,हमें भी डाकू बन जाना चाहिए ....तब हम
कुछ भी कर सकते हैं ....हमें स्कूल भी नहीं जाना पड़ेगा ,और ना ही मुंशी जी की मार खानी
पड़ेगी ...
मैंने कहा .....मैं डाकू मामा से पूछूंगा ....डाकू कैसे बना जाता है ?.....मेरी बात
से सभी सहमत हो गये । सुरेस, कहांर जात का था ....लेकिन वह हमारे साथ ही रहता था ।
जब कभी ....हम पंडितों को दावत मिलती किसी दुसरे गाँव से ,हम उसे भी ले जाते थे ......
उसे एक जनेऊ पहना देते थे और अपने साथ ही पांत में बैठा लेते थे ,किसी को भी शक नहीं होता
था .......यह कहांर का लडका है । हम लडके पूड़ी खाते -खाते कुछ पुड़ियाँ छिपा के अपनी हाफ
पैंट की जेब में डाल लेते थे .....घर आ के इकठा करते ...जब भी मैं गाँव आता ...एक कुत्ता जरुर
पाल लेता ....इसी कुत्ते के लिए हम पुड़ियाँ लाये थे ....उसे खिलाया करते थे
रात को ,दिप्पन दादी के पास सोते हुए ,मैंने पूछा ....."दादी डाकू मामा सच में डाकू हैं " ?
.......वह मेरी तरफ थोड़ी देर तक देखती रहीं .....फिर कहने लगी .....मुझे मालूम है ...तू क्यों जानना
चाहता है ? .....बेटा .....,बहुत साल पहले की बात है,मेरी शादी तेरे दादा जी से तै हो गयी थी ,
डाकू मामा जी मेरे बड़े भाई थे .....शादी से दो रोज पहले ,हमारे घर पे डाका पड़ा .....डाकू मामा
शुरू से ही कुस्ती और पहलवानी का बहुत शौक था .....आस -पास इलाके में उनका जैसा कोई
तगड़ा इंसान नहीं था । डाकू मामा .....उन डाकुओं से लड़ते हुए ....अपनी आँख तक गवा दिया
......इसी घटना के बाद से सभी लोग उन्हें डाकू मामा ...कह के बुलाने लगे .....और यह चन्दा
मामा जी की सगी बेटी है .......यह गाँव वाले जो कहते ....उन्हें मत सुना कर .....दिप्पन दादी की
बात सुनते - सुनते कब सो गया ....आगे क्या बताया मुझे नहीं मालूम ....
इस घटना को .....करीब चालीस साल हो गये ....न दिप्पन दादी रहीं ....न डाकू मामा जी
वो चन्दा आज भी है ......उसकी शादी एक अच्छे खानदान में हुई ....दो बेटियाँ हैं ......और डाकू मामा
जी इतना धन छोड़ के गये हैं .......लोग आज भी कहते हैं ...सब लूटा हुआ माल है ....चन्दा ,जो आज
मौज से रह रही है ......डाकू मामा की देन है ....
चन्दा के पास सच में बहुत धन है ....एक सेठानी की तरह रहती है .......रिश्ते में मैं उसे
बुआ कहता हूँ ....आज भी हमारे घर में कोई भी तीज -त्यौहार होता है उन्हें जरुर बुलाया जाता है
..............हमारी मण्डली आज भी मिलती है ....आज भी ,वह आम की बगिया है .....पर सारे पेड़
बूढ़े हो गये हैं, फल भी बहुत कम लगते हैं ........हम सभी भी तो बूढ़े हो गयें हैं ...... ।
Tuesday, April 13, 2010
भय
.....बहुत छोटा था , करीब सात साल का ,गर्मी की छुट्टी होते ही ,मैं अपनी
दादी के पास गाँव आ जाता था । सबसे बड़ा सुख था यहाँ कोई पढने को नहीं
कहता था ,मैं दादी की उंगली पकड कर अपनेगाँव में घूमता था ।
दादी को मैं तीन माई कह के बुलाता था , क्यों बुलाता था मुझे नहीं मालूम
मेरी दादी मुझे बहुत प्यार करती थी ,जब भी वह भैंस को दुहने जाती थी ,मुझे बुलाती
और भैंस की थन के पास मेरा मुंह कर देती .....और भैंस की थन का दूध मेरे मुंह में गारती
........मुझे मुंह में गुदगुदी लगती ........बहुत मजा आता .......शहर आ कर जब यह सब दोस्तों
को बताता ....वह सब लोग यकीन ही नहीं करते ......
दिन बड़ा गर्म होता था ,दादी मुझे घर से बाहर नहीं जाने देती थीं ,कहती लू लग जाएगी
.......गाँव में मेरे दोस्तों की एक मंडली थी .....हम सभी दोस्त दोपहर को घर से निकलते और
आम की बगिया में जा घुसते ......हम लोग अपने साथ एक चाकू रखते थे .....जिस पेड़ का आम
कम खट्टा होता , उसको तोड़ते और उसका छिलका बनाते ....और ढाख के पत्तों में रखते और
घर से छुपा के लाया हुआ नमक , जिसमें लहसुन और लाल मिर्ची पिसी होती थी .....उन छिलकों
पे डालते थे .....और उसके बाद इस तरह खाते जैसे कोई दावत हो .......वह चटखारा मैं आज तक
नहीं भूला .....कच्चे आमों का छिलका खाने के बाद प्यास बहुत लगती थी ......हम लोगों की बाग़
में एक कुआँ भी था .....उसमें पानी भी बहुत था .....लेकिन उसकी गहराई देख कर डर लगता था
.........हम सभी को प्यास लगी होती थी ......गाँव दूर होता था ....घर जा कर पानी पीना ,मतलब
धूप में जाओ ....हम सभी लडके नंगे पैर होते थे .....गर्मी की वजह से पैर जलता था ....हम में
भ्गू ज्यादा समझदार था ....वैसे इनका नाम दयाराम था .....पर हम लोग भ्गू बुलाते थे ,वह इस
लिए की वह बहुत तेज दौड़ता था । उसने ढान्ख के पेड़ों से उनका छिलका उतारा ,उसकी रस्सी
बनाई ......और ढ़ाक के पत्तों को पत्तल बना कर ,,एक लोटा जैसा बनाया ......और कुएं में डाल कर
पानी निकालता .......आधे से ज्यादा तो गिर जाता .....थोड़ा सा जो बचता वह हमें पिलाता ....
.....इस गर्मी में कुएं का ठंडा पानी .... अम्रत जैसा लगता ........
जब हम लोग बाग़ में बैठे थे शाम होने वाली थी .....तभी एक चिक बकरी ले कर आया ....हमारी
बाग़ से थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे बैठ गया .....गाँव से एक दो लोग आने लगे करीब सात -आठ लोग हो
गये .......हम लोग भी वहाँ पहुँच गये .....उस कसाई ने एक बड़ा सा चाक़ू निकाला .....और बकरी के
गले पे लगा रेतने .......और बकरी लगी चिल्लाने .....यह सब देख कर मैं इतना डर गया .......तेजी से
वहाँ से भाग निकला ......घर पहुँच कर सांस ली .....दादी ने पूछा भी मुझ से ,इतने डरे क्यों हो ? क्या
होगया ...मैं कुछ बोला नहीं .....
दिन ढल चुका था .....मैं घर से बाहर निकला ......और उसी पेड़ की तरफ गया ......अभी भी
वहाँ भीड़ थी ....पेड़ की डाल पे बकरी की टांग बंधी हुई थी .बकरी का सर एक तरफ कटा हुआ पड़ा था
......वहाँ पर खड़े हुए लोग ....खरीद रहे थे ,उस बकरी का गोस्त ....उस बकरी का लटका हुआ धड
खून से सना हुआ ....मैं देख कर डर रहा था, थोड़ी देर पहले यह अपने चार पैरों पर चल रहा थी ...अब
एक पैर से लटकी हुई है ......
आज मेरा मन बकरी को कटते देख कर .......इतना डर गया ....जैसे कोई मेरे गले पे
चाकू चला रहा हो ....उस रात मैं ठीक से सो भी नहीं पाया ......सुबह उठा ......गाँव में शहर की तरह
का नहाने की जगह नहीं होती ....लोटा ले कर मैदान की तरफ जाना पड़ता है ....फिर हम तीनो
दोस्त इकठा होते .......और जंगल की तरफ चल देते .....एक पोखरा था ......उसी के आस -पास
......बांस का जंगल था .....और ठाकुरों की आम की बाग़ थी ......हम तीनो दोस्त पंडित जात के थे
.......सभी लोग हम लोगों को प्यार करते थे ......मैं तो शहर में रहता था ,वहीं पढ़ता भी था .इसलिए
मेरी कुछ ज्यादा इज्जत थी ....
यहीं हम तीनो दोस्त मैदान जाते नीम की दंतून तोड़ते .....फिर उसी पोखरे में नहाते ....
मुझे तैरना नहीं आता था , यहीं इसी पोखरे में मैंने तैरना भी सीखा था....
आज ......मैंने अपने दोस्तों से कहा.......उस कसाई को हमें मारना है ......दोस्त समझे नहीं
ऐसा क्यों कह रहा हूँ .....मेरी सभी बात मानते थे ....वजह थी मैं शहर का था .....मेरी पढाई अंग्रेजी
स्कुल में होती है ......मुझे अग्रेजी का अक्छर ज्ञान है .....हम लोग अब कसाई को मारने का प्लान
बनाने लगे .........
हमारे एक दोस्त के पास बन्दूक थी ......हमें कैसे भी एक दिन को चुरानी थी .....और उस
कसाई को दिखा के डरानी थी ......आज के बाद वह किसी बकरी को नहीं मारेगा ....
......फिर एक दिन दोपहर को , हम तीनो मिले ....बन्दूक का इंतजाम हो गया .....अब हमें कसाई
को खोजना होगा .....हमें यह भी पता चल गया .....जिस दिन बाज़ार का होता है ...उसी दिन .....
कसाई बकरी ले कर आता है .......
हम तीनो अपनी बाग़ छिप के बैठ गये ....और बन्दूक भी हमारे पास थी .....करीब चार
बजे ...चिकवा बकरी लाता हुआ दिखा ...... भगू ही उसके पास गया .....और उसे बाग़ में बुला के ले
आया ....जैसे वह हम लोगो के पास पहुंचा .....उसका चेहरा डरावना था ....वैसे भी कसाई के चेहरे
डरावने हो जाते हैं ....जैसे वह हमारे करीब पहुंचा .....मैंने बन्दूक तान के कहा .....आज के बाद
तुम किसी बकरी को नहीं मरोगे ......वरना .....तुमको इसकी गोली खानी पड़ेगी ......
........कसाई बोला ,यह तो मेरा काम है .....यह नहीं करूंगा तो खाउंगा क्या .....?और आप के दादा जी
कहने पे मैं यहाँ आ कर बेचता हूँ ....और फिर इनके काका तो खाते है .....भगू की इशारा कर के कहा
.........मैंने गुस्से में कहा .....तुम बकरी को नहीं मारोगे ....समझे .....मैं दादी से कह के अपने घर में
काम दिला दूंगा ......
वह चुप रहा ......कुछ बोला नहीं .....मैंने कहा ....तू चुप क्यों है .....मैंने बन्दूक हटा ली .....
.......उ का है ....हम जात के कसाई हैं ना ....हमका कोई काम नहीं देगा .....आप कहें तो ....?
फिर वह चुप हो गया ......बोल ना ...बाजार से दूर ......पक्के पुल के नीचे ...कर ले .....
रात को दादा जी ने मुझे डांटा......यही सब करने आते हो .....बन्दूक दिखा के सब को डराते हो
.....मैं चुप रहा ........
............आज हमारे गाँव में बहुत बड़ी बजार लगती है .....उसी में उस कसाई की दूकान है ....हमारी जमीन में .........
पिता जी ने बताया था , दादा जी ही उसे यह जगह दे कर गये थे , उन्हें मटन खाने का
बहुत शौक था और वह भी , उस बकरे का मटन लेते थे ,जिसको अच्छा अच्छा खिला के पाला
होता है
......आज भी मेरा भय बरकरार है ....किसी बकरी का क़त्ल होना ........जो मैंने देखा था
दादी के पास गाँव आ जाता था । सबसे बड़ा सुख था यहाँ कोई पढने को नहीं
कहता था ,मैं दादी की उंगली पकड कर अपनेगाँव में घूमता था ।
दादी को मैं तीन माई कह के बुलाता था , क्यों बुलाता था मुझे नहीं मालूम
मेरी दादी मुझे बहुत प्यार करती थी ,जब भी वह भैंस को दुहने जाती थी ,मुझे बुलाती
और भैंस की थन के पास मेरा मुंह कर देती .....और भैंस की थन का दूध मेरे मुंह में गारती
........मुझे मुंह में गुदगुदी लगती ........बहुत मजा आता .......शहर आ कर जब यह सब दोस्तों
को बताता ....वह सब लोग यकीन ही नहीं करते ......
दिन बड़ा गर्म होता था ,दादी मुझे घर से बाहर नहीं जाने देती थीं ,कहती लू लग जाएगी
.......गाँव में मेरे दोस्तों की एक मंडली थी .....हम सभी दोस्त दोपहर को घर से निकलते और
आम की बगिया में जा घुसते ......हम लोग अपने साथ एक चाकू रखते थे .....जिस पेड़ का आम
कम खट्टा होता , उसको तोड़ते और उसका छिलका बनाते ....और ढाख के पत्तों में रखते और
घर से छुपा के लाया हुआ नमक , जिसमें लहसुन और लाल मिर्ची पिसी होती थी .....उन छिलकों
पे डालते थे .....और उसके बाद इस तरह खाते जैसे कोई दावत हो .......वह चटखारा मैं आज तक
नहीं भूला .....कच्चे आमों का छिलका खाने के बाद प्यास बहुत लगती थी ......हम लोगों की बाग़
में एक कुआँ भी था .....उसमें पानी भी बहुत था .....लेकिन उसकी गहराई देख कर डर लगता था
.........हम सभी को प्यास लगी होती थी ......गाँव दूर होता था ....घर जा कर पानी पीना ,मतलब
धूप में जाओ ....हम सभी लडके नंगे पैर होते थे .....गर्मी की वजह से पैर जलता था ....हम में
भ्गू ज्यादा समझदार था ....वैसे इनका नाम दयाराम था .....पर हम लोग भ्गू बुलाते थे ,वह इस
लिए की वह बहुत तेज दौड़ता था । उसने ढान्ख के पेड़ों से उनका छिलका उतारा ,उसकी रस्सी
बनाई ......और ढ़ाक के पत्तों को पत्तल बना कर ,,एक लोटा जैसा बनाया ......और कुएं में डाल कर
पानी निकालता .......आधे से ज्यादा तो गिर जाता .....थोड़ा सा जो बचता वह हमें पिलाता ....
.....इस गर्मी में कुएं का ठंडा पानी .... अम्रत जैसा लगता ........
जब हम लोग बाग़ में बैठे थे शाम होने वाली थी .....तभी एक चिक बकरी ले कर आया ....हमारी
बाग़ से थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे बैठ गया .....गाँव से एक दो लोग आने लगे करीब सात -आठ लोग हो
गये .......हम लोग भी वहाँ पहुँच गये .....उस कसाई ने एक बड़ा सा चाक़ू निकाला .....और बकरी के
गले पे लगा रेतने .......और बकरी लगी चिल्लाने .....यह सब देख कर मैं इतना डर गया .......तेजी से
वहाँ से भाग निकला ......घर पहुँच कर सांस ली .....दादी ने पूछा भी मुझ से ,इतने डरे क्यों हो ? क्या
होगया ...मैं कुछ बोला नहीं .....
दिन ढल चुका था .....मैं घर से बाहर निकला ......और उसी पेड़ की तरफ गया ......अभी भी
वहाँ भीड़ थी ....पेड़ की डाल पे बकरी की टांग बंधी हुई थी .बकरी का सर एक तरफ कटा हुआ पड़ा था
......वहाँ पर खड़े हुए लोग ....खरीद रहे थे ,उस बकरी का गोस्त ....उस बकरी का लटका हुआ धड
खून से सना हुआ ....मैं देख कर डर रहा था, थोड़ी देर पहले यह अपने चार पैरों पर चल रहा थी ...अब
एक पैर से लटकी हुई है ......
आज मेरा मन बकरी को कटते देख कर .......इतना डर गया ....जैसे कोई मेरे गले पे
चाकू चला रहा हो ....उस रात मैं ठीक से सो भी नहीं पाया ......सुबह उठा ......गाँव में शहर की तरह
का नहाने की जगह नहीं होती ....लोटा ले कर मैदान की तरफ जाना पड़ता है ....फिर हम तीनो
दोस्त इकठा होते .......और जंगल की तरफ चल देते .....एक पोखरा था ......उसी के आस -पास
......बांस का जंगल था .....और ठाकुरों की आम की बाग़ थी ......हम तीनो दोस्त पंडित जात के थे
.......सभी लोग हम लोगों को प्यार करते थे ......मैं तो शहर में रहता था ,वहीं पढ़ता भी था .इसलिए
मेरी कुछ ज्यादा इज्जत थी ....
यहीं हम तीनो दोस्त मैदान जाते नीम की दंतून तोड़ते .....फिर उसी पोखरे में नहाते ....
मुझे तैरना नहीं आता था , यहीं इसी पोखरे में मैंने तैरना भी सीखा था....
आज ......मैंने अपने दोस्तों से कहा.......उस कसाई को हमें मारना है ......दोस्त समझे नहीं
ऐसा क्यों कह रहा हूँ .....मेरी सभी बात मानते थे ....वजह थी मैं शहर का था .....मेरी पढाई अंग्रेजी
स्कुल में होती है ......मुझे अग्रेजी का अक्छर ज्ञान है .....हम लोग अब कसाई को मारने का प्लान
बनाने लगे .........
हमारे एक दोस्त के पास बन्दूक थी ......हमें कैसे भी एक दिन को चुरानी थी .....और उस
कसाई को दिखा के डरानी थी ......आज के बाद वह किसी बकरी को नहीं मारेगा ....
......फिर एक दिन दोपहर को , हम तीनो मिले ....बन्दूक का इंतजाम हो गया .....अब हमें कसाई
को खोजना होगा .....हमें यह भी पता चल गया .....जिस दिन बाज़ार का होता है ...उसी दिन .....
कसाई बकरी ले कर आता है .......
हम तीनो अपनी बाग़ छिप के बैठ गये ....और बन्दूक भी हमारे पास थी .....करीब चार
बजे ...चिकवा बकरी लाता हुआ दिखा ...... भगू ही उसके पास गया .....और उसे बाग़ में बुला के ले
आया ....जैसे वह हम लोगो के पास पहुंचा .....उसका चेहरा डरावना था ....वैसे भी कसाई के चेहरे
डरावने हो जाते हैं ....जैसे वह हमारे करीब पहुंचा .....मैंने बन्दूक तान के कहा .....आज के बाद
तुम किसी बकरी को नहीं मरोगे ......वरना .....तुमको इसकी गोली खानी पड़ेगी ......
........कसाई बोला ,यह तो मेरा काम है .....यह नहीं करूंगा तो खाउंगा क्या .....?और आप के दादा जी
कहने पे मैं यहाँ आ कर बेचता हूँ ....और फिर इनके काका तो खाते है .....भगू की इशारा कर के कहा
.........मैंने गुस्से में कहा .....तुम बकरी को नहीं मारोगे ....समझे .....मैं दादी से कह के अपने घर में
काम दिला दूंगा ......
वह चुप रहा ......कुछ बोला नहीं .....मैंने कहा ....तू चुप क्यों है .....मैंने बन्दूक हटा ली .....
.......उ का है ....हम जात के कसाई हैं ना ....हमका कोई काम नहीं देगा .....आप कहें तो ....?
फिर वह चुप हो गया ......बोल ना ...बाजार से दूर ......पक्के पुल के नीचे ...कर ले .....
रात को दादा जी ने मुझे डांटा......यही सब करने आते हो .....बन्दूक दिखा के सब को डराते हो
.....मैं चुप रहा ........
............आज हमारे गाँव में बहुत बड़ी बजार लगती है .....उसी में उस कसाई की दूकान है ....हमारी जमीन में .........
पिता जी ने बताया था , दादा जी ही उसे यह जगह दे कर गये थे , उन्हें मटन खाने का
बहुत शौक था और वह भी , उस बकरे का मटन लेते थे ,जिसको अच्छा अच्छा खिला के पाला
होता है
......आज भी मेरा भय बरकरार है ....किसी बकरी का क़त्ल होना ........जो मैंने देखा था
Thursday, April 1, 2010
सत्तू
........अब मेरी , ख़ास इज्जत होने लगी ,ज़ेबा जी के स्टाफ में
करीब दस रोज हो चुका था ,उनके साथ काम करते हुए । मैं जानता
था ,मुझ पे इतना सब खर्च जो हो रहा है ....उसके पीछे कुछ न कुछ ,
कोई बात जरुर है ,हीरो खान के साथ एक फिल्म थी जो पूरी हो गयी है
.....उस दिन ,जब मुझे पता चला की अब हीरो खान के साथ कोई फिल्म
नहीं है । तब मैंने ज़ेबा जी से कहा ....मेडमजी अब आप खान के साथ कोई
फिल्म मत साइन करें ........यह सुनते ही वह बोल पड़ी ....पर तुम्हारा काम
अभी ख़तम नहीं हुआ ....जो कुछ भी खान भाई जान ने, तुमसे कहा है .....वह तो तुम्हे
करना ही होगा ......! यह सुन कर ...मुझे समझ आ गया , कितनी नफरत करती हैं
हीरो खान से .....
इसी बीच बिरजू ...ज़ेबा जी को कह के गावं चला गया .....मैं बिलकुल अकेला रह गया
इस मुम्बई शहर में ....दिन यूँ कटने लगा ....जैसे बेवजह जिए जा रहा हूँ .....भाग भी नहीं
सकता था ....इनके चक्रव्यूह में यूँ फंस गया ....की अब मौत ही अपना आखरी इलाज लगने लगा
.........एक रोज ज़ेबा जी कर्जत में शूटिंग कर रही थी ,मैं भी साथ था ....और रात को ठहरने के लिए
खंडाला के एक बंगले में इंतजाम था ......पर उस बंगले में हम लोगों को रुकने की इज्जाजत नहीं
थी .....आज पहला दिन था शूटिंग का .......फिल्म नई थी, हीरो नया उभरता हुआ था ...
शूटिंग पे मेरा काम सिर्फ यह होता ....मैं साए की तरह ज़ेबा जी के साथ रहूँ ......बस एक रखवाले
की तरह .....जैसे गाँव में लोग अपनी आम की बगिया रखाने के लिए रखवाला रख लेते हैं
कोई एक आम न तोड़ने पाए ....बस मेरा भी वही हाल था ...
हथियार के नाम पे ....मुझे ज़ेबा जी ने एक पिस्तौल दे रखी थी ...उसे कब और किस पर
चलाना होगा ,वह भी वही बतायेंगी .....अब तो बड़े -बड़े निर्माता मुझे भी सलाम करते ...निर्देशक
ज़ेबा जी के बारे में .....कोई डेट चाहिए उसके बारे में मुझसे बात करता ....
दिन पर दिन मैं जेवा जी के करीब इतना आगया की उनके साथ बैठ कर खाना भी खाता ...
खान का बदला धीरे - धीरे धूमिल होने लगा ....अब तो उसका जिक्र भी नहीं होता ...जैसे भूल सी
गयी हों ......मुझे लोग शक की निगाह से देखने लगे ....मैं हूँ कौन ....?
उस रात ज़ेबा जी जब खंडाला के बंगले में अकेले रुकी थी ......मुझसे कहा था ...मैं बंगले
के बाहर रात भर मेरी ड्यूटी करूं .....किसी वक्त भी वह मुझे अंदर बुला सकती हैं,खतरा होने पे
उस रात , मैं बंगले से कुछ दुरी पे एक मंदिर के चबूतरे पे बैठा रहा ......हनुमान जी
का छोटा सा मंदिर था ..... माँ ने बचपन में हनुमान चालिसा याद करा दिया था..........
बस वही पढ़ता रहा ....उस रात मैंने कुछ खाया भी नहीं था .....भूख तो डर के मारे भाग
गयी थी । करीब रात के तीन बजे , ज़ेबा जी का फोन आया .....बंगले के पिछवाड़े आवो
मैं अँधेरे में रास्ता खोजता हुआ ......बंगले के पीछे के हिस्से में पहुंचा ....ज़ेबा जी ने एक दरवाजा खोला
और मुझे अंदर चलने को कहा ........बंगले में सभी लोग सो चुके थे ......मुझे एक कमरे में ले कर गयी
....मुझे डर लगने लगा ....यह मुझसे क्या चाहती हैं ?....बिस्तर खाली था .....मुझे बैठने को कहा
उन्होंने इत्मीनान की साँस ली ....मेरी तरफ देखा ...और कहने लगी ......जो काम तुम्हारा था
वह मैंने कर दिया है ,बिस्तर के नीचे एक सूटकेश है ....इसे तुम्हे ले कर जाना होगा ...
और ठीकाने लगाना होगा .....इसमें एक लाश है .......और लाश है ...मेरे भाई जान की ...हीरो खान की
नहीं ...मुझे बहुत दिनों से ठग रहे थे ....
मैं हीरो खान से प्यार करती हूँ .....और मुझे डर था ....कहीं तुम मेरे प्यारको मार ना डालो ।
आज तक जीतनी घटनाएं हुई हैं .......वह सब डान की ही पैदा की हुई थी .....अब इस सूटकेश
को ले और कहीं दूर फेंक कर आ जाओ .........
मैंने सूटकेश लिया ......और बंगले से बाहर आया ...... सर पे रख के चल दिया......कहाँ जाऊं ?
मैं इतना डरा हुआ था ......क्या करूं इस सूटकेश का ,पकड़ा गया ......तो जिन्दगी भर
की कैद भोगनी पड़ेगी ......मैं जब रेलवे लाइन पार कर रहा था .......तभी एक माल गाडी मेरे
सामने से गुजरी .....और कुछ दूरी पे जा कर रुक गयी ......गाडी इतनी लम्बी थी .....अब पार कैसे जाऊं
.......यही सब सोचता रहा ......सूटकेश को जमीन पे रख दिया था ......गाड़ी खडी रही ....
और मैं भी इसी इन्तजार में , गाडी जाये तो मैं भी पार जाऊं .......पुरी गाडी में कोयला भरा हुआ था
मेरे मन में एक बात आयी , क्यों ना मै इस सूटकेश को ....इस माल गाडी पे डाल दूँ .....पर इतना
भारी था सूटकेश, की मैं उसे अकेले माल गाडी पे डाल नहीं सकता था ......फिर भी हिम्मत की ...
और हनुमान जी का नाम लिया .....और फेंक दिया .....और खुद भी गाडी पे चढ़ के ...सूटकेश को
ठीक से रख दिया ......फिर ट्रेन धीरे - धीरे रेंगने लगी .......मैं ट्रेन पे बैठा ही रहा ......सोचा छोड़
दो इस शहर को .......कुछ नहीं है इस मुम्बई में ......दुखों का पिटारा है ....कौन किसको कैसे ठग
रहा है ... किसी को नहीं मालूम ......रात भर जगा हुआ था .....उन्हीं कोयलों के ढेर पे कब नीद
लग गयी पता ही नहीं चला ......
और कब तक सोया रहा ......जब आँख खुली तो मै ...कोयलों पे अकेला लेटा हुआ था ...
लगता है कोई चोर चुरा ले गया उस सूटकेश को ......अच्छा ही हुआ ....मेरे गले का बवाल गया
.............आज मैं साठ साल का हो गया ......अपने गाँव में हूँ ......फिल्म की हर किताब ,
पेपर पढ़ता हूँ ......जिसमें ज़ेबा जी के बारे में लिखा होता है ....थोड़ी सी खेती है ...उसी पे जीवित हूँ
पर बहुत खुश हूँ ......बिरजू अब नहीं रहा ......उसके बच्चे हैं ....उनका भी मैं ही ख्याल रखता हूँ
शादी नहीं की .......मुझे ज़ेबा जैसी कोई नहीं मिली ......और अंदर एक डर आज तक बैठा है
मैं भी भाई जान के खून में शामिल था ........?
करीब दस रोज हो चुका था ,उनके साथ काम करते हुए । मैं जानता
था ,मुझ पे इतना सब खर्च जो हो रहा है ....उसके पीछे कुछ न कुछ ,
कोई बात जरुर है ,हीरो खान के साथ एक फिल्म थी जो पूरी हो गयी है
.....उस दिन ,जब मुझे पता चला की अब हीरो खान के साथ कोई फिल्म
नहीं है । तब मैंने ज़ेबा जी से कहा ....मेडमजी अब आप खान के साथ कोई
फिल्म मत साइन करें ........यह सुनते ही वह बोल पड़ी ....पर तुम्हारा काम
अभी ख़तम नहीं हुआ ....जो कुछ भी खान भाई जान ने, तुमसे कहा है .....वह तो तुम्हे
करना ही होगा ......! यह सुन कर ...मुझे समझ आ गया , कितनी नफरत करती हैं
हीरो खान से .....
इसी बीच बिरजू ...ज़ेबा जी को कह के गावं चला गया .....मैं बिलकुल अकेला रह गया
इस मुम्बई शहर में ....दिन यूँ कटने लगा ....जैसे बेवजह जिए जा रहा हूँ .....भाग भी नहीं
सकता था ....इनके चक्रव्यूह में यूँ फंस गया ....की अब मौत ही अपना आखरी इलाज लगने लगा
.........एक रोज ज़ेबा जी कर्जत में शूटिंग कर रही थी ,मैं भी साथ था ....और रात को ठहरने के लिए
खंडाला के एक बंगले में इंतजाम था ......पर उस बंगले में हम लोगों को रुकने की इज्जाजत नहीं
थी .....आज पहला दिन था शूटिंग का .......फिल्म नई थी, हीरो नया उभरता हुआ था ...
शूटिंग पे मेरा काम सिर्फ यह होता ....मैं साए की तरह ज़ेबा जी के साथ रहूँ ......बस एक रखवाले
की तरह .....जैसे गाँव में लोग अपनी आम की बगिया रखाने के लिए रखवाला रख लेते हैं
कोई एक आम न तोड़ने पाए ....बस मेरा भी वही हाल था ...
हथियार के नाम पे ....मुझे ज़ेबा जी ने एक पिस्तौल दे रखी थी ...उसे कब और किस पर
चलाना होगा ,वह भी वही बतायेंगी .....अब तो बड़े -बड़े निर्माता मुझे भी सलाम करते ...निर्देशक
ज़ेबा जी के बारे में .....कोई डेट चाहिए उसके बारे में मुझसे बात करता ....
दिन पर दिन मैं जेवा जी के करीब इतना आगया की उनके साथ बैठ कर खाना भी खाता ...
खान का बदला धीरे - धीरे धूमिल होने लगा ....अब तो उसका जिक्र भी नहीं होता ...जैसे भूल सी
गयी हों ......मुझे लोग शक की निगाह से देखने लगे ....मैं हूँ कौन ....?
उस रात ज़ेबा जी जब खंडाला के बंगले में अकेले रुकी थी ......मुझसे कहा था ...मैं बंगले
के बाहर रात भर मेरी ड्यूटी करूं .....किसी वक्त भी वह मुझे अंदर बुला सकती हैं,खतरा होने पे
उस रात , मैं बंगले से कुछ दुरी पे एक मंदिर के चबूतरे पे बैठा रहा ......हनुमान जी
का छोटा सा मंदिर था ..... माँ ने बचपन में हनुमान चालिसा याद करा दिया था..........
बस वही पढ़ता रहा ....उस रात मैंने कुछ खाया भी नहीं था .....भूख तो डर के मारे भाग
गयी थी । करीब रात के तीन बजे , ज़ेबा जी का फोन आया .....बंगले के पिछवाड़े आवो
मैं अँधेरे में रास्ता खोजता हुआ ......बंगले के पीछे के हिस्से में पहुंचा ....ज़ेबा जी ने एक दरवाजा खोला
और मुझे अंदर चलने को कहा ........बंगले में सभी लोग सो चुके थे ......मुझे एक कमरे में ले कर गयी
....मुझे डर लगने लगा ....यह मुझसे क्या चाहती हैं ?....बिस्तर खाली था .....मुझे बैठने को कहा
उन्होंने इत्मीनान की साँस ली ....मेरी तरफ देखा ...और कहने लगी ......जो काम तुम्हारा था
वह मैंने कर दिया है ,बिस्तर के नीचे एक सूटकेश है ....इसे तुम्हे ले कर जाना होगा ...
और ठीकाने लगाना होगा .....इसमें एक लाश है .......और लाश है ...मेरे भाई जान की ...हीरो खान की
नहीं ...मुझे बहुत दिनों से ठग रहे थे ....
मैं हीरो खान से प्यार करती हूँ .....और मुझे डर था ....कहीं तुम मेरे प्यारको मार ना डालो ।
आज तक जीतनी घटनाएं हुई हैं .......वह सब डान की ही पैदा की हुई थी .....अब इस सूटकेश
को ले और कहीं दूर फेंक कर आ जाओ .........
मैंने सूटकेश लिया ......और बंगले से बाहर आया ...... सर पे रख के चल दिया......कहाँ जाऊं ?
मैं इतना डरा हुआ था ......क्या करूं इस सूटकेश का ,पकड़ा गया ......तो जिन्दगी भर
की कैद भोगनी पड़ेगी ......मैं जब रेलवे लाइन पार कर रहा था .......तभी एक माल गाडी मेरे
सामने से गुजरी .....और कुछ दूरी पे जा कर रुक गयी ......गाडी इतनी लम्बी थी .....अब पार कैसे जाऊं
.......यही सब सोचता रहा ......सूटकेश को जमीन पे रख दिया था ......गाड़ी खडी रही ....
और मैं भी इसी इन्तजार में , गाडी जाये तो मैं भी पार जाऊं .......पुरी गाडी में कोयला भरा हुआ था
मेरे मन में एक बात आयी , क्यों ना मै इस सूटकेश को ....इस माल गाडी पे डाल दूँ .....पर इतना
भारी था सूटकेश, की मैं उसे अकेले माल गाडी पे डाल नहीं सकता था ......फिर भी हिम्मत की ...
और हनुमान जी का नाम लिया .....और फेंक दिया .....और खुद भी गाडी पे चढ़ के ...सूटकेश को
ठीक से रख दिया ......फिर ट्रेन धीरे - धीरे रेंगने लगी .......मैं ट्रेन पे बैठा ही रहा ......सोचा छोड़
दो इस शहर को .......कुछ नहीं है इस मुम्बई में ......दुखों का पिटारा है ....कौन किसको कैसे ठग
रहा है ... किसी को नहीं मालूम ......रात भर जगा हुआ था .....उन्हीं कोयलों के ढेर पे कब नीद
लग गयी पता ही नहीं चला ......
और कब तक सोया रहा ......जब आँख खुली तो मै ...कोयलों पे अकेला लेटा हुआ था ...
लगता है कोई चोर चुरा ले गया उस सूटकेश को ......अच्छा ही हुआ ....मेरे गले का बवाल गया
.............आज मैं साठ साल का हो गया ......अपने गाँव में हूँ ......फिल्म की हर किताब ,
पेपर पढ़ता हूँ ......जिसमें ज़ेबा जी के बारे में लिखा होता है ....थोड़ी सी खेती है ...उसी पे जीवित हूँ
पर बहुत खुश हूँ ......बिरजू अब नहीं रहा ......उसके बच्चे हैं ....उनका भी मैं ही ख्याल रखता हूँ
शादी नहीं की .......मुझे ज़ेबा जैसी कोई नहीं मिली ......और अंदर एक डर आज तक बैठा है
मैं भी भाई जान के खून में शामिल था ........?
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