Tuesday, June 1, 2010

हज़पुरा

......मुझमें फिल्मों में जाने की नींव .....सन सत्तावन (५७)में ही

पड़ गयी ,जब मैं सातवीं क्लास में पढ़ रहा था ....और साथ मिला

दोस्त रतन का .........फिल्म देखने की आदत पड़ चुकी थी .....घर

के बगल ,रेलवे स्टेशन के ही करीब ......सुदर्शन टाकीज था ...अब भी

है ......जिसमें चालीस नये पैसे में सबसे आगे का टिकट मिल जाता था

परदे के बिल्कुल करीब बैठ के फिल्म देखते थे ......

........चोरी चोरी ,तुमसा नहीं देखा ,.......नदिया के पार ,....

दुर्गेश नंदनी .....बहुत सारी फ़िल्में यहीं ....देखा .....यह सारा काम ,घर

वालों से छुपा कर करता था ...घर से तीन -चार घंटे के लिए गायब होना

मुश्किल होता था .....और पकडे जान के बाद डांट खाना पड़ता था ......

राजू नाम का एक लडका था .....मुझ से उम्र में बड़ा था .......डांट खाने से

बचने का एक रास्ता सुझाया उसने ........फिल्म कैसे देखी जाय ?....उसने कहा

हम में से एक ....फिल्म का टिकट ले कर के आये .....और इंटरवल तक फिल्म

देखे ......और इंटरवल के बाद की फिल्म राजू देखे .....बाद में मिल कर कहानी

एक दुसरे को सूना लें ......घर पे भी पकडे नहीं जायेगें और पैसे भी कम लगे गा

आधे पैसे में फिल्म देख लेगें ..........

और हम दोनों मिल कर फ़िल्में देखने लगे ........राजू के मौसा जी मुम्बई में फिल्म

निर्माता और निर्देशक थे ........जिनका नाम राजेन्द्र भाटिया था ......जिन्होंने अनपढ़

फिल्म बनाई थी ....और भी फ़िल्में बनाई थी ...

जब मैं मुम्बई आया ......एक दिन,राजेन्द्र भाटिया जी के बेटे से मुलाक़ात हुई

जो राज .यन .सिप्पी का सहायक था ........

मैं जब गाँव जाता .....अपनी दादी से कहता, मैं फिल्मों में जाउंगा और ढेर

सारा पैसा कमाऊँगा ........मेरे साथ जो लडके थे सारे के सारे हाई स्कूल में फेल हो गये थे

बाबूजी ने कह दिया था ....यह सब खेल -कूद बंद करो ....वरना कोई नौकरी नहीं मिलने वाली

.......सच में मेरा खेलना कूदना बंद हो गया .......हाई स्कूल सेकण्ड डीविजन में पास हो गया

बाबू जी इतना खुश .....उनकी खुशी देखते बनती थी .....

रेलवे के कर्मचारिओं के बेटों के लिए एक कैम्प जा रहा था कश्मीर .......

सिर्फ पंद्रह रूपये में .......मैं कश्मीर गया सन ६२ में .....वहीं मैंने पहली बार एक्टर ओमप्रकाश जी

से मिला ...जब हम लडके लोग निशात बाग़ में घूम रहे थे .......हमारे साथ ....लाला अमरनाथ जी

आये थे दिल्ली से .....मैं तब -तक लाला जी बारे में कुछ नहीं जानता था .....उनकी ही पहचान थी

ओमप्रकाश जी से .......उन्हीं ने हम लडको को मिलवाया था ........जब मैं मुम्बई आया तो

ओमप्रकाश जी का आफिस रूप तारा स्टूडियो में .था , मेरे निर्माता विकाश जी का भी आफिस था

वहीं और उन्होंने ही मिलवाया था .......ओमजी .....से जब मिला ....और उन्हें कश्मीर की बात की

पर .....उन्हें याद नहीं थी .....





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