Tuesday, April 13, 2010

भय

.....बहुत छोटा था , करीब सात साल का ,गर्मी की छुट्टी होते ही ,मैं अपनी

दादी के पास गाँव आ जाता था । सबसे बड़ा सुख था यहाँ कोई पढने को नहीं

कहता था ,मैं दादी की उंगली पकड कर अपनेगाँव में घूमता था ।

दादी को मैं तीन माई कह के बुलाता था , क्यों बुलाता था मुझे नहीं मालूम

मेरी दादी मुझे बहुत प्यार करती थी ,जब भी वह भैंस को दुहने जाती थी ,मुझे बुलाती

और भैंस की थन के पास मेरा मुंह कर देती .....और भैंस की थन का दूध मेरे मुंह में गारती

........मुझे मुंह में गुदगुदी लगती ........बहुत मजा आता .......शहर आ कर जब यह सब दोस्तों

को बताता ....वह सब लोग यकीन ही नहीं करते ......

दिन बड़ा गर्म होता था ,दादी मुझे घर से बाहर नहीं जाने देती थीं ,कहती लू लग जाएगी

.......गाँव में मेरे दोस्तों की एक मंडली थी .....हम सभी दोस्त दोपहर को घर से निकलते और

आम की बगिया में जा घुसते ......हम लोग अपने साथ एक चाकू रखते थे .....जिस पेड़ का आम

कम खट्टा होता , उसको तोड़ते और उसका छिलका बनाते ....और ढाख के पत्तों में रखते और

घर से छुपा के लाया हुआ नमक , जिसमें लहसुन और लाल मिर्ची पिसी होती थी .....उन छिलकों

पे डालते थे .....और उसके बाद इस तरह खाते जैसे कोई दावत हो .......वह चटखारा मैं आज तक

नहीं भूला .....कच्चे आमों का छिलका खाने के बाद प्यास बहुत लगती थी ......हम लोगों की बाग़

में एक कुआँ भी था .....उसमें पानी भी बहुत था .....लेकिन उसकी गहराई देख कर डर लगता था

.........हम सभी को प्यास लगी होती थी ......गाँव दूर होता था ....घर जा कर पानी पीना ,मतलब

धूप में जाओ ....हम सभी लडके नंगे पैर होते थे .....गर्मी की वजह से पैर जलता था ....हम में

भ्गू ज्यादा समझदार था ....वैसे इनका नाम दयाराम था .....पर हम लोग भ्गू बुलाते थे ,वह इस

लिए की वह बहुत तेज दौड़ता था । उसने ढान्ख के पेड़ों से उनका छिलका उतारा ,उसकी रस्सी

बनाई ......और ढ़ाक के पत्तों को पत्तल बना कर ,,एक लोटा जैसा बनाया ......और कुएं में डाल कर

पानी निकालता .......आधे से ज्यादा तो गिर जाता .....थोड़ा सा जो बचता वह हमें पिलाता ....

.....इस गर्मी में कुएं का ठंडा पानी .... अम्रत जैसा लगता ........

जब हम लोग बाग़ में बैठे थे शाम होने वाली थी .....तभी एक चिक बकरी ले कर आया ....हमारी

बाग़ से थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे बैठ गया .....गाँव से एक दो लोग आने लगे करीब सात -आठ लोग हो

गये .......हम लोग भी वहाँ पहुँच गये .....उस कसाई ने एक बड़ा सा चाक़ू निकाला .....और बकरी के

गले पे लगा रेतने .......और बकरी लगी चिल्लाने .....यह सब देख कर मैं इतना डर गया .......तेजी से

वहाँ से भाग निकला ......घर पहुँच कर सांस ली .....दादी ने पूछा भी मुझ से ,इतने डरे क्यों हो ? क्या

होगया ...मैं कुछ बोला नहीं .....

दिन ढल चुका था .....मैं घर से बाहर निकला ......और उसी पेड़ की तरफ गया ......अभी भी

वहाँ भीड़ थी ....पेड़ की डाल पे बकरी की टांग बंधी हुई थी .बकरी का सर एक तरफ कटा हुआ पड़ा था

......वहाँ पर खड़े हुए लोग ....खरीद रहे थे ,उस बकरी का गोस्त ....उस बकरी का लटका हुआ धड

खून से सना हुआ ....मैं देख कर डर रहा था, थोड़ी देर पहले यह अपने चार पैरों पर चल रहा थी ...अब

एक पैर से लटकी हुई है ......

आज मेरा मन बकरी को कटते देख कर .......इतना डर गया ....जैसे कोई मेरे गले पे

चाकू चला रहा हो ....उस रात मैं ठीक से सो भी नहीं पाया ......सुबह उठा ......गाँव में शहर की तरह

का नहाने की जगह नहीं होती ....लोटा ले कर मैदान की तरफ जाना पड़ता है ....फिर हम तीनो

दोस्त इकठा होते .......और जंगल की तरफ चल देते .....एक पोखरा था ......उसी के आस -पास

......बांस का जंगल था .....और ठाकुरों की आम की बाग़ थी ......हम तीनो दोस्त पंडित जात के थे

.......सभी लोग हम लोगों को प्यार करते थे ......मैं तो शहर में रहता था ,वहीं पढ़ता भी था .इसलिए

मेरी कुछ ज्यादा इज्जत थी ....

यहीं हम तीनो दोस्त मैदान जाते नीम की दंतून तोड़ते .....फिर उसी पोखरे में नहाते ....

मुझे तैरना नहीं आता था , यहीं इसी पोखरे में मैंने तैरना भी सीखा था....



आज ......मैंने अपने दोस्तों से कहा.......उस कसाई को हमें मारना है ......दोस्त समझे नहीं

ऐसा क्यों कह रहा हूँ .....मेरी सभी बात मानते थे ....वजह थी मैं शहर का था .....मेरी पढाई अंग्रेजी

स्कुल में होती है ......मुझे अग्रेजी का अक्छर ज्ञान है .....हम लोग अब कसाई को मारने का प्लान

बनाने लगे .........

हमारे एक दोस्त के पास बन्दूक थी ......हमें कैसे भी एक दिन को चुरानी थी .....और उस

कसाई को दिखा के डरानी थी ......आज के बाद वह किसी बकरी को नहीं मारेगा ....

......फिर एक दिन दोपहर को , हम तीनो मिले ....बन्दूक का इंतजाम हो गया .....अब हमें कसाई

को खोजना होगा .....हमें यह भी पता चल गया .....जिस दिन बाज़ार का होता है ...उसी दिन .....

कसाई बकरी ले कर आता है .......


हम तीनो अपनी बाग़ छिप के बैठ गये ....और बन्दूक भी हमारे पास थी .....करीब चार

बजे ...चिकवा बकरी लाता हुआ दिखा ...... भगू ही उसके पास गया .....और उसे बाग़ में बुला के ले

आया ....जैसे वह हम लोगो के पास पहुंचा .....उसका चेहरा डरावना था ....वैसे भी कसाई के चेहरे

डरावने हो जाते हैं ....जैसे वह हमारे करीब पहुंचा .....मैंने बन्दूक तान के कहा .....आज के बाद

तुम किसी बकरी को नहीं मरोगे ......वरना .....तुमको इसकी गोली खानी पड़ेगी ......

........कसाई बोला ,यह तो मेरा काम है .....यह नहीं करूंगा तो खाउंगा क्या .....?और आप के दादा जी

कहने पे मैं यहाँ आ कर बेचता हूँ ....और फिर इनके काका तो खाते है .....भगू की इशारा कर के कहा

.........मैंने गुस्से में कहा .....तुम बकरी को नहीं मारोगे ....समझे .....मैं दादी से कह के अपने घर में

काम दिला दूंगा ......

वह चुप रहा ......कुछ बोला नहीं .....मैंने कहा ....तू चुप क्यों है .....मैंने बन्दूक हटा ली .....

.......उ का है ....हम जात के कसाई हैं ना ....हमका कोई काम नहीं देगा .....आप कहें तो ....?

फिर वह चुप हो गया ......बोल ना ...बाजार से दूर ......पक्के पुल के नीचे ...कर ले .....

रात को दादा जी ने मुझे डांटा......यही सब करने आते हो .....बन्दूक दिखा के सब को डराते हो

.....मैं चुप रहा ........

............आज हमारे गाँव में बहुत बड़ी बजार लगती है .....उसी में उस कसाई की दूकान है ....हमारी जमीन में .........

पिता जी ने बताया था , दादा जी ही उसे यह जगह दे कर गये थे , उन्हें मटन खाने का

बहुत शौक था और वह भी , उस बकरे का मटन लेते थे ,जिसको अच्छा अच्छा खिला के पाला

होता है

......आज भी मेरा भय बरकरार है ....किसी बकरी का क़त्ल होना ........जो मैंने देखा था


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