Tuesday, March 16, 2010

सत्तू

करीब दो बजे ,आँख खुली ...भूख लग रही थी । इस झोपड़ी में एक बड़ा

सा ड्रम था ,जिसमें बिरजू सुबह उठ कर पानी भर देता था ,मैंने पहले

नहाया और फिर चाय पीने के लिए ,घर से निकला ,बगल की गली में

एक चाय की दूकान थी ,वहीं अक्सर चाय पीता हूँ, यह दूकान एक औरत

चलाती है ,बंगाली है जो । आधी बंगाली में बात करती है ,जो बहुतों को

समझ में नहीं आता .....पर हर चाय पीने वाला इसकी भाषा का मजा लेता है

मैं जब इसके पास चाय पीने पहुंचा ,तो दूकान में कोई नहीं था । मुझे देखते ही

इसके चेहरे पे चमक आ जाती है और छूटते कहती है ,ओ मिठू कोथाय था ,

लेट हो गया ? हूँ सो गया ..... । माँ को पैसा -वैसा भेजा ......?..कुछ सोच के

जवाब दिया .......कल भेजेगा ....., चाय देते हुए कहा ....उसने ,जरुर भेजना

इस मुम्बई शहर में ....बिगड़ते देर नहीं लगती ,इसका समझाना मुझे अच्छा

नहीं लगता ......जबरदस्ती रिश्ता बनाने की कोशिश करती है ....जब मैं बेकार था

तब मुझसे पैसे नहीं लेती थी ....चाय पीने का ।


पता नहीं क्यों ....इसके व्योहार में ,एक संदेह लगता है ....जैसे मुझसे कुछ चाहती

है ..., मैं चुप चाप चाय पीता रहा ...सर नीचा किये हुए .....पर मुझे मालूम है ,इसकी

दोनों आँखे मुझ पे गडी होंगी .....एय मिठू ...मेरा एकठो काम करेगा ?मैंने उसकी तरफ

देखा ,उसकी बड़ी -बड़ी आँखे ,काली माँ जैसी लग रहीं थी ....कभी -कभी उसे देख कर डर भी

लगता .......फिर वह बोल पड़ी ....तू मेरे को देख के डर क्यों जाता है ? ...नहीं तो ...काम बोलो

मैंने कहा , अपने को समझाते हुए ।

देख मिठू मुझे टाईम नहीं मिलता ....तू तो रिक्शा ले कर खार की तरफ जाता ही होगा ? उधर

माँ का मंदिर है ...उधर से ,माँ की बड़ी फोटो लाने का .....यह पैसा लो ....मैंने पैसा लेने से मना कर

दिया .....उसने जबर्दस्ती मेरे पैंट में हाथ डाल कर रख दिया ...फिर हंस कर कहा ,जेब तो फटी नहीं

है ....यह सुन कर मैं झेंप गया .....मेरे इस शर्माने पे वह बोल पड़ी ....तुम्हें कोई एक दिन जरुर उड़ा

कर ले जाएगा ...मैं कुछ बोला नहीं ....चाय के पैसे दिए और चल दिया .... मुझे इसमें कई रूप नज़र

आता है ,कभी माँ जैसी लगती है ....कभी बहन जैसे डांटती ,कभी मेरी आँखों में इस तरह झांकती

जैसे ...मेरे वैगर जी नहीं सकती ।

इसी सोच में मेरी झोपड़ी आ गयी .....अंदर पहुँच कर पहले उस झोले को देखा ...मैंने कुछ

सोच कर देखने के लिए ....उसमें से सब कुछ निकाला , पहले पिस्तौल को निकाला ,एक तो देसी

थी और दूसरी छे राउंड की थी ...गोलिओं का एक पैकेट था । फिर मैंने नोटों के बन्डल को देखा ,

दो बन्डल थे ...कुल एक लाख रुपया .....मैंने एक बन्डल से दस नोट निकाले ,माँ को भेजने के लिए

....फिर एक पल को ख्याल आया ...यह जो मैं कर रहा हूँ ...गलत तो नहीं है ?

2 comments:

  1. अच्छी कशमकश दिखाई है....बढ़िया लघुकथा

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  2. कभी अपने अन्तर्मन से उठ रहे भाव ही धिक्कारते हैं...

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